SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन अनुशीलन इस प्रकरण में साधु के विशेष प्रकार के आचार का वर्णन किया. गया है जिसके द्वारा जीव पूर्व - बद्ध कर्मों को शीघ्र ही नष्ट करने का प्रयत्न करता है । वह विशेष प्रकार का आचार है - तपश्चर्या । इस तपश्चर्या की पूर्णता के लिए साधक को अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करना पड़ता है जिसे परीषहजय कहा गया है । साध्वाचार का पालन करने की दुष्करता का जो प्रतिपादन किया गया है वह भी इसी तप की अपेक्षा से किया गया है । तपसाधु के सामान्य सदाचार से सर्वथा पृथक् नहीं है अपितु सामान्य सदाचार में ही विशेष दृढ़ता का होना तप है | अतः ग्रन्थ में तप के जो भेद गिनाए गए हैं वे सब साधु के सामान्य आचार से सम्बन्धित हैं । तपसाधु के आचार की कसौटी है जिससे उसके आचार की शुद्धता ( चोखापन एवं खोटापन ) की परख होती है । यद्यपि साधु प्रत्येक क्रिया तप से अनुस्यूत रहती है परन्तु वे सब क्रियाएँ तप नहीं हैं अपितु कुछ विशेष क्रियाएँ ही विशेष नियमों के कारण तप की कोटि में आती हैं । तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भागों में विभक्त किया गया है । जो तप केवल बाह्य क्रिया से सम्बन्ध रखता है तथा आभ्यन्तर आत्मा के परिणामों की विशुद्धि में कारण नहीं है वह अभीष्टसाधक तप नहीं है परन्तु इसके विपरीत जो आत्मा के परिणामों की विशुद्धि में कारण है और आभ्यन्तर क्रिया से संबन्ध रखता है वह अभीष्टसाधक है तथा वही वास्तविक तप भी है । इसलिए ग्रन्थ में कई स्थलों पर बाह्यलिंगादि की अपेक्षा भावलिगादि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है । ऐसा प्रतिपादन करने का कारण यह था कि साधक मात्र क्रियाओं तक ही इतिश्री समझते थे और जो जितना अधिक शरीर को कष्ट देने वाला तप करता था वह उतना ही अधिक बड़ा तपस्वी समझा जाता था । अतः यह शरीर को पीड़ित करने वाला तप ही वास्तविक तप नहीं है अपितु ज्ञानादि की प्राप्ति में सायक तप ही वास्तविक तप है । यह सिद्ध करने के लिए तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भागों में विभक्त करके आभ्यन्तर तप को श्रेष्ठ बतलाया गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy