SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३६६ भिक्षाचर्या जो कि साधु का सामान्य आचार है यदि उसी में कुछ विशेष नियम ले लिए जाते हैं तो वह तप की कोटि में आ जाता है। इसी प्रकार भूख से कम खाना, सरस पदार्थों का सेवन न करना तथा सब प्रकार के आहार का त्याग करना ये साध के आहार से सम्बन्धित तप हैं। इनसे रसना इन्द्रिय पर संयम किया जाता है। ये तप इसलिए भी आवश्यक हैं कि इनसे आहार आदि से सम्बन्धित सूक्ष्म हिंसा आदि दोषों का परिहार किया जा सके । साधु के सामान्य आचार के प्रसंग में उसके लिए एकान्त में निवास करने का विधान किया गया है। अतः साधु यदि विशेषरूप से आत्मध्यानादि के लिए एकान्त-निवास का आश्रय लेता है तो वह भी एक प्रकार का तप (संलीनता) है। पद्मासन, खड़गासन आदि आसनविशेष में स्थिर होना स्पष्ट ही कायक्लेशरूप तप है। इस तरह ये छहों प्रकार के तप बाह्य शारीरिक क्रिया से सम्बन्धित हैं। __दोषों की प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि, गुरु के प्रति विनय, सेवाभक्ति, अध्ययन, ध्यान और कायोत्सर्ग ये छः तप अन्तरंग-क्रिया से सम्बन्धित होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। इनका आध्यात्मिक महत्त्व तो है ही साथ ही व्यावहारिक महत्त्व भी है। इन आभ्यन्तर तपों में प्रायश्चित्त तप एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयं स्वीकृत दण्ड है। इससे आचार में लगे हुए दोषों की विशुद्धि होती है। साधु प्रतिदिन 'प्रतिक्रमण आवश्यक' करते समय इस तप को करता ही है। गुरु के प्रति विनय, उनकी सेवा तथा स्वाध्याय ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ध्यान तप से साधक अशुभ-व्यापारों की ओर झुकनेवाली चित्तवृत्ति को रोककर आत्मा के चिन्तन की ओर लगाता है। अतः यह ध्यान तप योगदर्शन में प्रतिपादित चित्तवत्ति-निरोधरूप समाधिस्थानापन्न है। कायोत्सर्ग तप ध्यानावस्था की प्राप्ति के लिए प्रारम्भिक कर्तव्य है क्योंकि जब तक शरीर से ममत्व को छोड़कर उसे एकाग्र नहीं किया जाएगा तब तक ध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इस तरह हम देखते हैं कि साधक इन छहों आभ्यन्तर तपों को किसी न किसी रूप में प्रतिदिन अवश्य करता है। इन्हें सामान्य सदाचार से पृथक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy