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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
बतलाने का कारण यह है कि साधक अपने सदाचार में प्रमाद न करते हुए शीघ्रातिशीघ्र अपने अभीष्ट फल को प्राप्त कर ले ।
इस तपश्चर्या के प्रसंग में योगदर्शन में बतलाई गई समाधि का वर्णन करना अनावश्यक नहीं समझता हूँ क्योंकि यहां पर तपश्चर्या के प्रसंग में जो ध्यान का स्वरूप बतलाया गया है वह उससे बहुत मिलता-जुलता है। योगदर्शन में समाधि ( योग ) के दो भेद हैं : १. सम्प्रज्ञात समाधि और २. असम्प्रज्ञात समाधि ।' सम्प्रज्ञात समाधि ' सालम्ब' और 'सबीज' होती है? क्योंकि इसमें किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर किया जाता है । इसके विपरीत असम्प्रज्ञात समाधि 'निरालम्ब' और 'निर्बीज' होती है ' क्योंकि इसमें चित्त की समस्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाती हैं । सम्प्रज्ञात समाधि में ध्येय, ध्यान और ध्याता का भेद बना रहता है परन्तु असम्प्रज्ञात में ध्येय, ध्यान और ध्याता एकाकार हो जाते हैं, उनमें भेद परिलक्षित नहीं होता है । अत: इसे असम्प्रज्ञातसमाधि कहा गया है । यह ध्यान की चरमावस्था है । इस समाधि की अवस्था में पहुंचने पर आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेती है । अतः इसे 'कैवल्य' की अवस्था कहा गया है । ४ ठीक यही स्थिति प्रकृत ग्रन्थ में शुक्लध्यान की है। शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद आलम्बनसहित होने से सम्प्रज्ञात समाधिरूप हैं तथा बाद के दो भेद निरालम्ब एवं निर्बीज होने से असम्प्रज्ञातसमाधिरूप हैं । कैवल्य की अवस्था दोनों में समान है । इसके
१. देखिए - भा० द० ब०, पृ० ३५८.
२. क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः । - पा० यो० १.४१.
ता एव सबीज: समाधिः ।
- पा० यो० १.४६.
३. तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः समाधिः ।
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- पा० यो० १.५१.
४. तस्मिन्निवृत्ते पुरुष: स्वरूपमात्र प्रतिष्ठोऽतः शुद्ध केवली मुक्त इत्युच्यत इति ।
- वही, भाष्य, पृ० ५०.
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