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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
और ५. आसुरी भावना ( क्रोध करना-निरन्तर क्रोध करना तथा शुभाशुभ फलों का कथन करना )। ___ समाधिमरण में मृत्यु के समय इन भावनाओं के त्याग से स्पष्ट है कि इस प्रकार का मरण आत्महनन नहीं है। इस प्रकार के मरण को प्राप्त करनेवाला जीव बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त नहीं होता है अपितु दो-चार जन्मों के भीतर सब प्रकार के दुःखों से अवश्य ही मुक्त हो जाता है। यदि कारणवश सब प्रकार के. कर्म नष्ट नहीं होते हैं तो महासमृद्धिशाली देवपर्याय की प्राप्ति होती है।' इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि सिर्फ मत्यु के समय सल्लेखना धारण कर लेना चाहिए तथा शेष जीवन में विषयों का भोग करना चाहिए। इसका कारण है कि प्रारम्भ से ही जब सदाचार का अभ्यास किया जाता है तभी जीव इस समाधिमरण को प्राप्त करता है। अतः कहा है कि जो कार्य प्रारम्भ में ( जवानी में ) शक्ति के वर्तमान रहने पर किया जा सकता है वह वृद्धावस्था में शरीर के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर नहीं किया जा सकता है। जो मिथ्यादर्शन ( मिथ्यात्व ) में अनुरक्त हैं, निदानपूर्वक कर्मानुष्ठान करते हैं, हिंसा तथा कृष्णले श्या में अनुरक्त हैं ऐसे जीव जिनवचन में श्रद्धा न करके 'अकाम-मरण' (सभयमरण) या बालमरण (मों की मृत्यु ) को बारम्बार प्राप्त करते हैं । इसके विपरीत जो सम्यग्दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान-सहित कर्मानुष्ठान नहीं करते हैं, शुक्ललेश्या से युक्त हैं तथा जिनवचन में श्रद्धा रखते हैं वे अल्पसंसारी होते हैं। १. बालाणं अकामं तु मरणं असइं भवे । पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सई भवे ॥
-उ० ५.३. सम्वदुक्खपहोणे वा देवे वावि महिडिटए ।
-उ० ५.२५. २. स पुज्वमेवं न ल भेज्ज पच्छा एसोवमा सासय वाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयम्मि कालोवणीए सरीरस्स भेए ।
-उ० ४६. ३. देखिए-पृ० ३६५, पा० टि० १.
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