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प्रकरण ४
सामान्य साधनाचार
जिन अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों को गृहस्थ अंशतः (स्थूलरूप से) पालन करता है उनको ही साधु सर्वात्मना ( सूक्ष्मरूप से ) पालन करता है । साधु के बाह्यवेष आदि में परिस्थितियों के अनुसार नियमों व उपनियमों के रूप में परिवर्तन होते रहे हैं । इसका स्पष्ट संकेत हमें केशिगौतम संवाद में मिलता है । वहाँ बतलाया गया है कि भगवान् महावीर ने किस प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ के ं धर्म में देश- कालानुरूप परिवर्तन किए। इस प्रकार के परिवर्तनों के होने पर भी साधु के मूल आचार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ क्योंकि जो भी परिवर्तन किए गए वे देश-काल की परिस्थिति को ध्यान में रखकर सिर्फ बाह्य- उपाधिभूत नियमों व उपनियमों में किए गए ताकि साधु अन्तरङ्ग आत्मविशुद्धि में दृढ़ बना रहे । इसीलिए ग्रन्थ में सर्वत्र बाह्य-उपाधि की अपेक्षा अन्तरङ्ग आत्म-विशुद्धि को श्रेष्ठ बतलाया गया है । साधु के आचार को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है : १. सामान्य साध्वाचार और २. विशेष साध्वाचार |
सामान्य साध्वाचार :
साधु के द्वारा प्रतिदिन जिस प्रकार के सदाचार का सामान्यरूप से पालन किया जाता है उसे सामान्य साध्वाचार कहा गया है । इसमें मुख्यरूप से निम्नोक्त विषयों पर विचार किया जाएगा :
१. दीक्षा की उत्थानिका - दीक्षा के पूर्व की स्थिति ।
२. बाह्य उपकरण (उपधि ) - वस्त्र, पात्र आदि बाह्य साधन । ३. महाव्रत - अहिंसादि पाँच नैतिक नियम |
४. प्रवचनमाताएँ ( गुप्ति व समिति ) - महाव्रतों की रक्षार्थ प्रवृत्ति और निवृत्ति में सावधानी ।
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