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________________ २४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रपञ्चों में उलझा रहता है जिससे उसे आत्मशुद्धि का अवसर कम मिलता है, जबकि साधु सांसारिक सभी प्रपञ्चों से दूर रहता है जिससे उसे आत्मविशुद्धि के लिये अधिक अवसर मिलता है। अतः जब गृहस्थ गार्हस्थ्य-जीवन में रहते हुए भी उससे उसी प्रकार अलग सा रहता है जिस प्रकार जल में रहकर भी कमल जल से भिन्न रहता है तब वह गृहस्थ वास्तव में गृहस्थ नहीं है अपितु वीतरागी ही है। गृहस्थी में रहने के कारण उसका जो गार्हस्थ्य-जीवन के साथ सूक्ष्म रागात्मक सम्बन्ध बना रहता है वह भी जब अन्तिम समय (मृत्युसमय) छूट जाता है तब वह पूर्ण वीतरागी होकर मुक्ति का अधिकारी हो जाता है। इसका विशेष विचार मुक्ति के प्रकरण में किया जाएगा। इस तरह इस प्रकरण में संसार के दुःखों से निवृत्ति पाने के लिए तथा अविनश्वर सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय का संक्षेप में वर्णन किया गया है। प्रसंगवश सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में ज्ञान की प्राप्ति में निमित्तभत गुरु-शिष्य के सम्बन्धों तथा उनके कर्त्तव्यों आदि का भी वर्णन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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