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परिशिष्ट १ : कथा-संवाद
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केशिक्या तुम उन शत्रुओं को जानते हो जो तुम्हारे ऊपर आक्रमण कर रहे हैं और जिनके मध्य में तुम स्थित हो ? तुमने उन्हें कैसे जीता ?
गौतम - हाँ ! मैं उन शत्रुओं को जानता हूँ। मैंने उन अनेक शत्रुओं में से सबसे पहले अवशीकृत आत्मारूपी एक प्रधान शत्रु को वशीकृत आत्मा के द्वारा जीता। इसके बाद कषाय, इन्द्रिय, नोकषाय आदि अन्य अनेक शत्रुओं को क्रमशः जीता ।
केशि - संसार में बहुत से जीव पाशबद्ध हैं फिर तुम कैसे पाशबन्धन से मुक्त हो ?
गौतम - संसार में रागद्वेषरूपी भयंकर स्नेहपाश हैं । उन पाशों को यथान्याय ( जिनप्रवचन के अनुसार - वीतरागता से ) जीतकर मैं पाशरहित होकर विचरण करता हूँ ।
केशि - हृदय में उत्पन्न विष-लता को तुमने कैसे उखाड़ा ? गौतम - परिणाम में भयंकर फलवाली तृष्णारूपी एक लता है । उस लता को यथान्याय ( निर्लोभता के द्वारा ) जड़मूल से उखाड़कर मैं उसके विषफलभक्षण से मुक्त हूँ ।
शि- शरीर में प्रज्वलित अग्नि को कैसे शान्त किया ? गौतम - कषायरूपी अग्नियाँ जिनेन्द्ररूपी महामेघ से उत्पन्न श्रुतज्ञानरूपी जलधारा से निरन्तर सींची जाने के कारण मुझे नहीं जलाती हैं ।
केशि - साहसी, दुष्ट व भयंकर घोड़े पर बैठे हुए तुम सन्मार्ग में कैसे स्थित हो ?
गीत-धर्मशिक्षा तथा श्रुतरूपी लगाम के द्वारा मैं मनरूपी दुष्ट घोड़े को पकड़े हुए हूँ जिससे मैं उन्मार्ग में न जाकर सन्मार्ग में ही स्थित हूँ ।
केशि - संसार में
'बहुत से उन्मार्ग होने पर भी आप सन्मार्ग में
कैसे स्थित हैं ?
गौतम - मैं उन्मार्ग और सन्मार्ग को अच्छी तरह जानता अतः सन्मार्ग से च्युत नहीं होता हूँ । जिनेन्द्र का मार्ग सन्मार्ग है और अन्य सभी उन्मार्ग |
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