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४५६ ] . उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कांपिल्य नगर में रानी चूलनी के गर्भ से ब्रह्मदत चक्रवर्ती के रूप में जन्म लिया और चित्त के जीव ने पुरिमताल नगर में एक विशाल श्रेष्ठि कुल में जन्म लिया। चित्त का जीव धर्म का श्रवण करके साधु बन गया परन्तु संभूत का जीव ( ब्रह्मदत्त ) भोगों में आसक्त रहा। संयोगवश चित्त मुनि एक दिन ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए कांपिल्यनगर में आए। वहाँ एक-दूसरे को देखकर उन्हें जातिस्मरण हो गया। इसके बाद संभूत का जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अपने पूर्वभव के भाई चित्त मुनि का सत्कार करके बोला___ संभूत ( ब्रह्मदत्त )-परस्पर प्रीति वाले हम दोनों भाई पूर्वभवों में क्रमशः दशार्ण देश में दासरूप से, कलिजर पर्वत पर मृगरूप से, मतगंगा के तीर पर हंसरूप से, काशी में चाण्डालरूप से
और देवलोक में देवरूप से एक साथ उत्पन्न हए, फिर क्या कारण है कि इस छठे भव में पृथक-पृथक् हो गए ? ___ चित्त (चित्त मुनि)-हे राजन् ! हम दोनों एक-से कर्म करने के कारण पाँच भवों तक तो एक साथ पैदा हए परन्तु इस छठे भव में पृथक होने का कारण यह है कि तुमने चाण्डाल भव में जो पुण्यकर्म किए थे वे भोगों की प्राप्ति की अभिलाषा से (अशुभ निदानपूर्वक) किए थे और मैंने अभिलाषारहित (निदान रहित) होकर किए थे। यही कारण है कि एक समान कर्म करने पर भी हम दोनों भाई इस भव में बिछुड़ गए। ____संभूत-मैं पूर्व भव के पुण्यकर्मों का शुभ फल आज सब प्रकार से भोग रहा हूँ। क्या तुम भी इसी प्रकार हो ?
चित्त-मुझे भी अपना जैसा ही समझ । मैं एक महान अर्थवाली गाथा को सुनकर प्रवजित हो गया हूँ।
संभूत-हे भिक्षु ! यह मेरा घर सब प्रकार से समृद्ध है । तू भी इसका यथेच्छ उपभोग कर क्योंकि भिक्षाचर्या बड़ी कठिन है।
चित्त-हे राजन् ! संसार के सभी विषय-भोग क्षणिक एवं सुखाभासरूप हैं। दीक्षा में उनसे कई गुना अधिक सख है। तू भी मेरे जैसा बन जा। ___ संभत-हे मुने ! मैं भी आपकी तरह ही जानता हूँ परन्तु चाण्डाल भव में ( हस्तिनापुर में राजा के ऐश्वर्य को देखकर )
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