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________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [ ४५५ इन्द्र-गहस्थाश्रम छोड़कर संन्यासाश्रम में जाना उचित नहीं है। नमि- सर्वविरतिरूप श्रमणदीक्षा से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है। इन्द्र-कोशवद्धि करके दीक्षा लेवें। नमि-अनन्त धन प्राप्त होने पर भी लोभी की इच्छाएँ शान्त नहीं होती हैं । अतः धनसंग्रह से क्या प्रयोजन है ! इन्द्र-असत् व अप्राप्त भोगों की लालसा से प्राप्त अदभुत भोगों को त्यागना उचित नहीं है। नमि-मैंने काम-भोगों की लालसा से प्राप्त भोगों को नहीं त्यागा है क्योंकि इनकी इच्छा मात्र दुर्गति का कारण है। __ इस तरह ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने राजा नमि की श्रमण-धर्म में दृढ़ आस्था देखकर अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया और मधुर वचनों से राजा नमि के आश्चर्यकारी गुणों की स्तुति करते हुए वन्दना की। इन्द्र देवलोक चला गया तथा नमि और अधिक नम्रीभूत हो गए। पश्चात् नमि ने श्रमण-दीक्षा ली और निर्वाण पद पाया। ___ इस परिसंवाद से जिन महत्त्वपूर्ण बातों पर प्रकाश पड़ता है, वे इस प्रकार हैं: १. श्रमणधर्म गहस्थाश्रम से पलायन नहीं है। २. दीक्षार्थी को गह-कुटम्ब की चिन्ता न करना। ३. अवशीकृत आत्मा की विजय सबसे बड़ी विजय है । ४. संसार के विषय-भोग विषफल सदृश हैं। ये अनन्त की संख्या में प्राप्त होने पर भी सुखकर नहीं होते हैं। .. ५. श्रमणधर्म की श्रेष्ठता व प्रयोजन । ६. दीक्षार्थी के मन में उत्पन्न होने वाले अन्तद्वन्द्व का सफल चित्रण। ७. सहेतुक प्रश्न पूछना व ऐसे ही प्रश्नों के सहेतुक उत्तर देना। चित्त-सम्भूत संवाद : चित्त और सम्भत नाम के दो चाण्डाल थे। वे दोनों मरकर देव हए। उन दोनों में से संभत के जीव ने देवलोक से च्यूत होकर १. उ० अध्ययन १३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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