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________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४५७ किए गए निदानबन्ध के कारण मैं वस्तुस्थिति को जानकर भी इन काम-भोगों को उसी प्रकार नहीं छोड़ पा रहा हूँ जिस प्रकार कि दलदल में फंसा हुआ हाथी तीर-प्रदेश को देखकर भी दलदल से नहीं निकल पाता है। चित्त-यदि तू भोगों को त्यागने में असमर्थ है तो दया आदि अच्छे कर्म कर जिससे देवत्व की प्राप्ति हो । इस प्रकार स्नेहवश कल्याण की भावना से दिए गए सदुपदेश का जब ब्रह्मदत्त पर कोई प्रभाव न पड़ा तो मुनि ने पुनः कहा'तुम्हारी भोगों को त्यागने की इच्छा नहीं है। तू आरम्भ और परिग्रह में आसक्त है। मैंने व्यर्थ इतना प्रलाप किया। अब मैं जा रहा हूँ।' इसके बाद ब्रह्मदत्त भोगों में आसक्ति के कारण अनुत्तर ( सातवें ) नरक में गया और काम-भोगों से विरक्त चित्तमुनि अनुत्तर सिद्धगति ( मोक्ष ) में गया। इस परिसंवाद से निम्नोक्त बातों पर प्रकाश पड़ता है : १. यदि कोई साधु न बन सके तो गृहस्थ-धर्म का पालन करे। २. उपदेश उसे ही देना चाहिए जो उसे ग्रहण करे। ३. कर्म की विचित्रता। ४. निदानबन्ध का कुपरिणाम । ५. विषय-भोगों की असारता। मृगापुत्र और माता-पिता संवाद :' सग्रीव नगर में बलभद्र राजा राज्य करता था। उसकी मृगावती नाम की पटरानी थी। उनका एक प्रिय पुत्र था जिसका नाम था 'बलश्री' परन्तु वह 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह सुरम्य महलों में रानियों के साथ देवसदृश भोग भोगा करता था तथा हमेशा प्रसन्नचित्त रहा करता था। एक दिन जब वह रत्न. जटित प्रासाद में बैठा हुआ झरोखे से नगर के चौराहों आदि की ओर देख रहा था कि अचानक उसकी दृष्टि एक संयत साधु पर पड़ी। उसे निनिमेष दृष्टि से देखकर वह सोचने लगा कि मैंने पहले भी १. उ० अध्ययन १६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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