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________________ १५८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . २. चारित्रमोहनीय। इसके बाद दर्शनमोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के दो भेद किए गए हैं।' दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के स्वरूपादि अधोलिखित हैं : क. दर्शनमोहनीय-यहाँ पर जो 'दर्शन' शब्द का प्रयोग है वह श्रद्धापरक है । अतः इस कर्म का उदय होने पर जीव को धर्मादि में सच्चा श्रद्धान नहीं होता है। इसके जिन तीन भेदों का उल्लेख किया गया है उनके नाम ये हैं : १. सम्यक्त्वमोहनीय-चञ्चलता आदि दोषों के संभव होने पर भी तत्त्वों में सच्चा श्रद्धान होना, २. मिथ्यात्वमोहनष-विपरीत श्रद्धान होना और ३. सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय-कुछ सम्यक व कुछ मिथ्या श्रद्धान होना। इसे मिश्र-मोहनीय भी कह सकते हैं। इस विभाजन में सम्यक्-श्रद्धान रूप सम्यक्त्वमोहनीय को भी दर्शनमोहनीय का भेद स्वीकार किया गया है जबकि दर्शनमोहनीय सच्ची श्रद्धा का प्रतिबन्धक है। इससे मालम पड़ता है कि यहां पर सच्ची श्रद्धा मोहात्मक, धुंधली तथा अस्थिर होती होगी। अतः कम-ग्रन्थों में इसका लक्षण करते हुए लिखा है : जिसके प्रभाव से 'तत्त्वश्रद्धा में चञ्चलता आदि दोषों की संभावना हो क्योंकि शुद्ध सच्ची श्रद्धा अर्थ करने पर उसमें मोहनीय-कर्मता नहीं रहेगी।२ मोह जड़ता, 'अविवेकता' का नाम है। अतः जो सच्ची श्रद्धा मोह, अविवेक आदि से युक्त हो वह सम्यक्त्व-दर्शनमोहनीय है। 3 . १. मोहणिज्ज पि दुविहं दंसणे चरणे तहा। दंसणे तिविहं दुत्तं चरणे दुविहं भवे ॥ -उ० ३३.८. तथा देखिए-उ० ३३.६-१०. २. कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २३. ३. जैसे किसी रूपलावण्यवती नायिका के रूपलावण्य का निखार उसके स्वच्छ और अति महीन वस्त्रों में से झलकता है परन्तु वह रूपलावण्य अति शुभ्र व महीन वस्त्र से आच्छादित रहने के कारण पूर्णरूप से प्रतिभासित नहीं होता है। उसी प्रकार सम्यक्त्त्वदर्शनमोहनीय में सच्ची श्रद्धा होने पर भी उसपर मोहनीय कर्म का बहुत ही सूक्ष्म पर्दा पड़ा रहता है जो सामान्यतया प्रतिभासित नहीं होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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