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प्रकरण २ : संसार
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वेदनीय के दो भेद किए गए हैं : १. प्राणिदया व परोपकारादि से बँधने वाले सुखरूप सातावेदनीय कर्म तथा २. हिंसादि से बँधने वाले दुःखरूप असातावेदनीय कर्म । इन दोनों के अन्य कई अवान्तर भेदों का ग्रन्थ में संकेत मात्र किया गया है। पुण्यरूप और पापरूप जितने भी कर्म संभव हैं वे सब इसके अवान्तर भेद हो सकते हैं।२ आत्मा की स्वानुभूति से उत्पन्न होने वाला सुख इस कर्म का परिणाम नहीं है क्योंकि उस प्रकार का सुख आत्मा का स्वाभाविक गुण है । अतः मुक्त जीवों में अनन्त सूख की सत्ता मानकर भी उनमें वेदनीय कर्म का अभाव माना गया है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो मुक्त जीवों को सुखानुभूति नहीं होगी। वेदनीय कर्म से जो सुखानुभूति होती है वह संसार के रूपादि विषयों से उत्पन्न होने वाली है।
४. मोहनीय कर्म-जो हेयोपादेयरूप (स्व-परविवेकात्मक) गुण को प्रकट न होने देवे । इस कर्म के प्रभाव से जीव विषयों में आसक्त (मूच्छित) रहता है और उसे अपनी मूर्खता (मूढ़ता) का पता नहीं रहता है । मोहनीय कर्म सब कर्मों में प्रधान है। इस कर्म के दूर होते ही अन्य कर्म जल्दी ही पृथक हो जाते हैं। इसी कर्म के प्रभाव से वस्तुस्थिति को जानते हुए भी जीव की सत्य मार्ग में प्रवत्ति नहीं होती है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती संसार की असारता जानकर भी इसी कर्म के प्रभाव से विषयों में आसक्त रहता है। इसीलिए दुःख के कारणों की परम्परा में रागद्वेष का भी मूल कारण मोह माना गया है। तत्त्वों में श्रद्धान और सदाचार में प्रवृत्ति न होने देने के कारण इसके प्रमुख दो भेद किए गए हैं : १. दर्शनमोहनीय और १. वेयणीयं पि य दुविहं सायमसायं च आहियं । सायस्स उ बहू भेया एमेव असायस्स वि ॥
-उ० ३३.७. २. देखिए-कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २५. ग्रन्थ में भी असातावेद
नीयरूप से क्रोध, मान, माया और लोभवेदनीय का उल्लेख मिलता है।
-उ० २६. ६७-७०. ३. उ० २६.५-६,२६,७१.
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