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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन धर्मप्रेमी, पापभीरु, सर्वहितैषी आदि गुणों से युक्त होता है। इसका 'रंग' हिंगलधातु (शिंगरफ), तरुण सूर्य (मध्याह्न का सूर्य), शुकनासिका और दीपक की शिखा की तरह दीप्तिमान होता है। इसका 'रस' पक्व आम्रफल और पक्व कपित्थफल के खटमीठे रस से भी कई गुना अधिक खट-मीठा होता है। इसकी 'गन्ध' केवड़ा आदि सुगन्धित पुष्पों और चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों से भी कई गुनी अधिक सुगन्धित होती है। इसका 'स्पर्श' वर (वनस्पति विशेष), नवनीत और सिरस के फूल से भी कई गुना अधिक कोमल होता है । इस लेश्या की सामान्य स्थिति कम से कर्म अर्ध मुहूर्त और अधिक से अधिक पल्योपम के असंख्येयभाग सहित दो सागरोपम है। इस लेश्यावाला जीव मरकर मनुष्य या देवगति (सुगति) को प्राप्त करता है।
५. पद्मलेश्या'- इस लेश्यावाला जीव अल्प कषायों वाला, प्रशान्तचित्त, तपस्वी, अत्यल्प-भाषी और जितेन्द्रिय होता है। इसका रंग हरताल, हरिद्रा के टुकड़े, सन और असन के पुष्पों की तरह पीला होता है। इसका रस श्रेष्ठ मदिरा, नाना प्रकार के आसव आदि से भी अनन्त गुना अधिक मधुर होता है। इसकी गंध तेजोलेश्या से भी अधिक सुगन्धित होती है और इसका 'स्पर्श' तेजोलेश्या से भी अधिक कोमल होता है। इस लेश्या की कम-से-कम स्थिति अन्त
पियधम्मे दढधम्मेऽवज्जभीरू हिएसए। . एयजोगसमाउत्तो तेओलेसं तु परिणमे ।।
- उ.० ३४.२७-२८. तथा देखिए-उ० ३४. ७, १३, १७, १६-२०, ३३, ३७, ४०, ५१-५३,
५७-६०. १. पयणुकोहमाणे य मायालोभे य पयणुए। पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ।। तहा पयणुवाई य उवसते जिइदिए। एयजोगसमाउत्तो पम्हलेसं तु परिणमे ।
-उ० ३४. २६-३०. तथा देखिए-उ० ३४. ८, १४, १७, १६-२०, ३३,३८,४०,४५,५४, ५७-६०.
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