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प्रकरण २ : संसार
[ १६७ इन गुणों से नीललेश्यावाले की पहचान होती है । इस लेश्या का 'रंग' नीले अशोकवृक्ष, चाषपक्षी के पंख और स्निग्ध वैदूर्यमणि (नीलम) की तरह नीला होता है । इसका 'रस' मिर्च, सोंठ, और गजपीपल के रस से भी अनन्तगुणा तीक्ष्ण होता है। इसकी 'गंध' और 'स्पर्श' कृष्णलेश्या की ही तरह हैं परन्तु तीव्रता की मात्रा कुछ कम है। इसकी कम से कम सामान्य-स्थिति अर्धमुहूर्त और अधिक से अधिक पल्लोपम के असंख्यातवें भागसहित १० सागरोपम है। इस लेश्यावाला जीव नरक या तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होता है। ...३. कापोतलेश्या-इस लेश्यावाला जीव वक्र-वक्ता, वक्राचारी, छली. निज दोषों को छुपाने वाला, निःसरल, मिथ्यादृष्टि, अनार्य, पर-मर्मभेदक, चोर और असूया करने वाला होता है। इस लेश्या का 'रंग'-अलसी के पुष्प, कोयल के पैर और कबूतर की ग्रीवा की तरह कापोतवर्ण होता है। इसका 'रस' कच्चे आम, तुवर और कपित्थफल के रस से भी कई गुणा अधिक खट्टा होता हैं। इसकी 'गन्ध' नीललेश्या की अपेक्षा तीव्रता में कुछ कम होती है
और इसका 'स्पर्श' भी नीललेश्या की अपेक्षा तीव्रता में कुछ कम होता है। सामान्य-स्थिति कम से कम अर्धमूहर्त और अधिक से अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित तीन सागरोपम है । इस लेश्यावाला जीव मरकर आचरण की तरतमता के अनुसार नरक' या तिर्यञ्च गति (दुर्गति) में जन्म लेता है। .
४. तेजोलेश्या२-- इस लेश्यावाला जीव नम्र, अचपल, अमायी, अकुतूहली, विनीत, जितेन्द्रिय, स्वाध्यायप्रेमी, तपस्वी, १. वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जए ।
पलिउंचगओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए । उप्फालगदुद्रुवाई य तेणे यावि या मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो काऊलेसं तु परिणमे ।।
-उ० ३४. २५-२६. तथा देखिए-उ० ३४.६,१२,१६,१८,२०,३३,३६,४०-४१, ५०,
५६,५८-६०. २. नीयावित्ती अचवले अमाई अकुऊहले । विणीयविणए वंते जोगवं उवहाणवं ।
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