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________________ १६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. कृष्णलेश्या'-हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, धन-संग्रह आदि में प्रवृत्त क्षुद्रबुद्धि, निर्दयी, नशंस, अजितेन्द्रिय तथा बिना विचारे कार्य करने वाला पुरुष कृष्णलेश्यावाला कहलाता है । अथवा इस प्रकार के आचरण में प्रवृत्ति कराना कृष्णलेश्या का स्वरूप है। इस लेश्या का 'रंग' सजल मेघ, महिषशृंग, काजल और नेत्र-कनीनिका की तरह काला होता है। इसका 'रस' कड़वी तबी, नीम और कटु रोहिणी (औषधिविशेष) के कड़वे रस से भी कई गुणा अधिक कडुआ होता है। इसकी 'गन्ध' मृत गौ, कुत्ता और सर्प से भी कई गुनी अधिक दुर्गन्धित होती है। इसका स्पर्श करपत्र (आरा), गौजिह्वा और शाकपत्र की अपेक्षा कई गुणा अधिक कर्कश होता है। इसकी सामान्य-स्थिति समय) कम से कम अर्धमुहूर्त और अधिक से अधिक अन्तमुहर्त अधिक ३३ सागरोपम है। इस लेश्यावाला जीव मरकर नरक या तिर्यञ्चगति में जन्म लेता है। यह सबसे खराब लेश्या है। २. नीललेश्या२-इस लेश्यावाला जीव. ईर्ष्यालु, कदाग्रही, असहिष्णु, अतपस्वी, अविद्वान्, मायावी, निर्लज्ज, द्वेषी, रसलोलुपी, शठ, प्रमादी, स्वार्थी, आरम्भी, क्षुद्र और साहसी होता है। अर्थात १. पंचासवप्पवत्तो तीहिं अंगुत्तो छसु अविरओ य । तिव्वारंभपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो॥ . निद्धसपरिणामो निस्संसो अजिइंदिओ। एयजोगसमा उत्तो किण्हलेसं तु परिणमे ॥ -उ० ३४. २१-२२. तथा देखिए-उ० ३४.४,१०,१६,१८,२०,३३-३४,४३,४५,४८,५६, ५८-६०. २. इस्सा अमरिस अतवो अविज्जमाया अहीरिया । गेही पओसे य सढे पमत्ते रसलोलुए सायगवेसए य ॥ आरंभाओ अविरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणमे ।। -उ० ३४.२३-२४. तथा देखिए-उ० ३४. ५, ११, १६, १८, २०, ३३,३५,४२,४६,५६, ५८.६०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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