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________________ प्रकरण २ : संसार [१६५ वर्णन करते समय सिर्फ कर्म-परमाणुओं की संख्या का निर्देश किया गया है जैसाकि कर्मों के प्रदेशाग्र के वर्णन प्रसङ्ग में किया गया है।' यहां यह बात स्मरणीय है कि कर्मों को फलदायक बनाने के लिए कर्मों से पृथक् अन्य शक्ति की कल्पना नहीं की गई है। ये कर्म अचेतन होकर भी एक स्वचालित यंत्र की तरह अपना कार्य करते रहते हैं। कर्मबन्ध में सहायक लेश्याएँ : ___ कर्मों के रूपी होने पर भी उन्हें इन नग्न नेत्रों से देखना संभव नहीं है। फिर इन कर्मों के बन्ध को कैसे समझा जाय कि अमुक प्रकार के कर्म का बन्ध हआ है। इसके लिए ग्रन्थ में कर्म-लेश्याओं का वर्णन किया गया है। कर्म-लेश्या का अर्थ है आत्मा से बंधे हए कर्मों के प्रभाव से व्यक्ति में उत्पन्न होने वाला अध्यवसाय विशेष अथवा कषायादि से अनुरञ्जित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति । तारतम्यभाव की अपेक्षा से व्यक्तियों के अच्छे और बुरे आचरण को छः भागों में विभक्त करके तदनुसार ही छः लेश्याओं के स्वरूप का वर्णन किया गया है। किस प्रकार के आचरण का फल कितना मधुर. या कट होता है, स्पर्श कितना कर्कश यो कोमल होता है, गन्ध कितनी तीव्र या मन्द होती है, रंग किस प्रकार का होता है इत्यादि बातों को इन लेश्याओं के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है । इसके अतिरिक्त इन लेश्याओं का नामकरण रंगों के आधार पर किया गया है। उनके क्रमशः नाम ये हैं२ : कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शक्ल । अब क्रमशः इनके स्वरूपादि का वर्णन ग्रन्थानुसार किया जाएगा। १. सिद्धाणणंतभागो य अणभागा हवंति उ। सव्वेसु वि पए सग्गं सव्वजीवेसु इच्छियं ॥ -उ०३३.२४. तथा देखिए-पृ० १६३ पा० टि० १. २. किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा य नामाइं तु जहक्कम । उ० ३४. ३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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