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________________ १६४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन यह जो कर्मों की स्थिति बतलाई गई है वह मूल-प्रकृतियों की अपेक्षा से है। उत्तर-प्रकृतियों की अपेक्षा से इनकी आयु-स्थिति में हीनाधिकता भी हो सकती है।' यह कर्मों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति बतलाई गई है । ये कर्म इस सीमा के अन्दर अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर राग-द्वेषरूप परिणामों के अनुसार नए-नए कर्म आते रहते हैं। यहां एक बात ध्यान रखने योग्य है कि ये कर्म अपनी आयुस्थिति में सदा एकरूप नहीं रहते हैं अपितु यथासंभव उनकी अवस्थाओं मे परिवर्तन आदि होते रहते हैं । जैनदर्शन में कर्म की ऐसी १० अवस्थाएँ बतलाई गई हैं। इस स्थिति-बन्ध के साथ ही साथ कर्मों में तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति भी उत्पन्न होती है। इस उत्पन्न होने वाली शक्ति को अनुभांग या अनुभाग-बन्ध कहते हैं। कर्मों की स्थिति और फल की तीव्रता एवं मन्दता जीव के रागादिरूप परिणामों की तीव्रता एवं मन्दता पर निर्भर है। ग्रन्थ में कर्मों के फल (अनुभाग) का आत्मारामजी अपनी उत्तराध्ययन-टीका (पृ० १५४७-१५४८) में प्रज्ञापनासूत्र के 'सातावेदणिज्जस्स" "जहन्नेणं बारसमुहुत्ता' (२३.२.२६४) पाठ को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में सातावेदनीय की अपेक्षा से जघन्य-स्थिति १२ मुहूर्त बतलाई गई है। १. विशेष के लिए देखिए-प्रज्ञापनासूत्र का प्रकृति-पद । २. कर्मों की १० अवस्थाएँ ये हैं-१. कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध (बन्ध), २. बन्ध के बाद उनकी सामान्य स्थिति (सत्ता या सत्त्व), ३. समय पर उनका फलोन्मुख होना (उदय), ४. तपस्या आदि के द्वारा उन्हें समय के पूर्व फलोन्मुख करना (उदीरणा), ५. कर्मों की स्थिति और फलदायिनी शक्ति में वृद्धि करना (उत्कर्षण), ६. ह्रास करना (अपकर्षण), ७. सजातीय कर्मों में परस्पर परिवर्तन होना (संक्रमण), ८. बद्धकर्मों को कुछ समय के लिए फलोन्मुख होने से रोक देना (उपशम), ६. बद्धकर्मों में फलोन्मुखता एवं संक्रमण न होने देना (निधत्ति) और १०. कर्म जिस रूप में बद्ध हुए हैं उनका उसी रूप में पड़े रहना (निकाचन)। -जैनदर्शन-डा० मोहनलाल मेहता, पृ० ३५५; जै० ध० के०, पृ० १४२. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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