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________________ प्रकरण २ : संसार [ १६६ और अधिक से अधिक अर्धमुहूर्त अधिक १० सागरोपम है । इस लेश्यावाला जीव मरकर मनुष्य या देवगति ( सुगति ) में जन्मला है । ६. शुक्ललेश्या ' - इस लेश्यावाला जीव शुभ ध्यान करने वाला, प्रशान्तचित्त, जितेन्द्रिय, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति में चञ्चलता से रहित, अल्परागी और अहिंसाप्रेमी होता है । इसका 'रंग' शंख, अंक (मणि विशेष ), मुचकुन्द पुष्प, दुग्धधारा एवं रजतहार की तरह श्वेत ( उज्ज्वल ) वर्ण का होता है। इसका 'रस' खजूर, दाख, दूध, चीनी आदि के मधुर रस से भी कई गुना अधिक मधुर होता है । इसकी 'गन्ध' पद्मलेश्या से भी कई गुनी अधिक सुगन्धित होती है और 'स्पर्श' भी पद्मलेश्या से कई गुना अधिक कोमल होता है । इस लेश्या की कम से कम स्थिति अर्धमुहूर्त और अधिक से अधिक एक मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम होती । इस लेश्यावाला जीव मरकर मनुष्य या देवगति को प्राप्त करता है । यह सर्वश्रेष्ठ लेश्या है । इस तरह इन छहों लेश्याओं में उत्तरोत्तर चारित्र का विकास दिखलाया गया है । प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ, अधर्मरूप एवं अप्रशस्त हैं । अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ, धर्मरूप एवं प्रशस्त हैं । इन लेश्याओं के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट गुणरूप परि १. अट्टहाणि वज्जित्ता धम्मसुक्काणि साहए । पसंतचित्ते दंतप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ सरागे बीयरागे वा उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमा उत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे || - उ० ३४.३१-३२. तथा देखिए - उ०३४.६, १५, १७, १६ - २०, ३३, ३६-४०,४६, ५५, ५७-६०. २. किण्हा नीला काऊ तिम्नि वि एयाओ अहम्मले साओ । यहि तिहि वि जीवो दुग्गइं उववज्जई || तेऊ पहा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गई उववज्जई ॥ —उ० ३४.५६-५७. तथा देखिए - उ० ३४.६१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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