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________________ • १७० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन णामों के तारतम्यभाव के आधार से ग्रन्थ में तीन, नव, सत्ताईस, इक्यासी और दो सौ तैतालीस अंशों की कल्पना की गई है। ग्रन्थ में इस अंश-कल्पना का कथन परिणामद्वार द्वारा किया गया है तथा इनके भेदों के प्रकार को 'स्थान' कहा गया है। इनके स्थान कितने हैं ? इस विषय में कहा है--असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय (क्षण) होते हैं तथा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश होते हैं उतने ही स्थान लेश्याओं के होते हैं। ____ मृत्यु के उपरान्त जब जीव परलोक में गमन करता है तो किसी न किसी लेश्या से युक्त होकर ही गमन करता है। यहाँ इतना विशेष है कि जब कोई नवीन लेश्या जीव से सम्बद्ध होती है तो उसके प्रथम समय में और यदि कोई लेश्या किसी जीव से पृथक् होती है तो उसके अन्तिम समय में जीव का परलोकगमन नहीं होता है अपितु आने वाली लेश्या के अन्तर्महतं बीत जाने पर और जाने वाली लेश्या के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर ही १. उ० ३४.२०. प्रज्ञापनासूत्र १७.४.२२६ में भी इसी प्रकार परिणामद्वार का वर्णन है। २. संसार में अनुक्रम से समय-सम्बन्धी दो प्रकार के चक्र चल रहे हैं अवसर्पिणी-काल और उत्सर्पिणी-काल । जिस काल में जीवों की आयु, स्थिति, आकार, सुख-समृद्धि आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता जाए उसे अवसर्पिणी-काल कहते हैं तथा जिस काल में जीवो की आयु आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाए उसे उत्सर्पिणी-काल कहते हैं। आयु आदि के ह्रास और विकास के आधार से प्रत्येक को ६.६ भागों (आरों) में विभक्त किया गया है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों काल-चकों का समय बराबर-बराबर (१०-१० कोटाकोटि सागरोपम) माना गया है। यह अवसर्पिणी और उत्सपिणी काल-सम्बन्धी क्रम निरन्तर चलता रहता है। -उ० आ० टी०, पृ० १५७७-१५७८. ३. उ० ३४.३३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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