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________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [१०५ · है।' शेष क्षेत्र और कालसम्बन्धी सभी बातें चतुरिन्द्रिय की तरह हैं। इन नारकी जीवों के दुःख मनुष्यों के दुःखों की अपेक्षा बहुत अधिक हैं तथा नीचे-नीचे के नरकों के दुखः पूर्व-पूर्व के नरकों की अपेक्षा कई गुने अधिक हैं। इन नरकों में किस प्रकार के कष्ट मिलते हैं इसका विशेष वर्णन आगे किया जाएगा। तिर्यञ्च-एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रियों वाले जीव तथा पञ्चेन्द्रियों में पशु-पक्षी आदि तिर्यञ्च कहलाते हैं । उत्पत्ति को अपेक्षा से पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के दो भेद हैं.-१. सम्मूच्छिम और २. गर्भज। दोनों के पुन: जल, स्थल और आकाश में चलने की शक्ति की अपेक्षा से तीन-तीन भेद किए गए हैं। १. देवे नेरइए य अइगओ उक्कोस जीवो उ संवसे ।। इक्किक्कभवगहणे समयं गोयम मा पमायए। -उ० १०.१४. जा चेव उ आउठिई नेरइयाणं वियाहिया । - सा तेसि कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे ।। -उ० ३६.१६७. २. उ० ३६.१५८-१५६, १६८-१६६. ३. जहा इहं अगणी उण्हो इत्तोऽणंतगुणो तहिं । नरएसु वेयणा उण्हा अस्साया वेइया मए ।। -उ० १६.४८. तथा देखिए-उ० १६.४६; प्रकरण २, नारकीय कष्ट । ४. पंचिदियतिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया। समुच्छिमतिरिक्खाओ गब्भवक्कंतिया तहा ।। -उ० ३६.१७०. जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः । शेषाणां सम्मूर्द्धनम् । -त. सू० २.३३-३४. ५. दुविहा ते भवे तिविहा जलयरा थलयरा तहा। नहयरा य बोधव्वा तेसिं भेए सुणेह मे ॥ -उ० ३६.१७१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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