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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३२३ पाँच महाव्रत जिन्हें साधु दीक्षा के समय ग्रहण करता है उनके मूल में अहिंसा और अपरिग्रह की भावना विद्यमान है। अहिंसा और अपरिग्रह के भी मूल में अहिंसा है तथा इस अहिंसा की पूर्णता बिना अपरिग्रह के संभव नहीं है। यहाँ पर अपरिग्रह से न केवल धन के संग्रह का त्याग अभिप्रेत है अपितु यावन्मात्र सांसारिक विषयों का त्याग अभिप्रेत है जिसे कि सर्वविरति और वीतरागता इन शब्दों से कहा जा सकता है। जैसा कि केशिगौतम-संवाद से स्पष्ट है कि जनसामान्य की बदलती हुई प्रवृत्ति के कारण महाव्रतों की संख्या में वृद्धि की गई है तथा अपरिग्रह शब्द का अर्थ धन-संग्रहत्यागरूप अर्थ में रूढ़ हो गया है। संसार के विषयों में आसक्ति होने के कारण जीव धनादि के संग्रह में प्रवृत्त होता है और धनादि की प्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि अनैतिक क्रियाओं में प्रवत्ति करता है। धनादि की प्राप्ति हो जाने पर उसके भोगोपभोग में प्रवृत्ति करता हुआ और अधिक धनादि के संग्रह में प्रवृत्त होता है। इस तरह संसारासक्ति, लोभ, धनादि के संग्रह में प्रवृत्ति ये सब सभी प्रकार के अनैतिक कार्यों में प्रवृत्ति करानेवाले हैं। इस तरह ये मुक्ति के मार्ग में भी प्रतिबन्धक हैं। इसीलिए ग्रन्थ में लाभ को लोभ का जनक बतलाते हुए संसारासक्ति से विरक्त होने का उपदेश दिया गया है। ___ धर्म के नाम पर यज्ञ में होनेवाली हिंसा को देखकर तथा विश्वबन्धुत्व की भावना से प्रेरित होकर अहिंसा को सब व्रतों का मूलाधार माना गया तथा साधु की प्रत्येक क्रिया में अहिंसापूर्वक प्रवृत्ति करने पर जोर दिया गया। ब्रह्मचर्य जोकि स्त्री-संपर्क त्यागरूप है पहले अपरिग्रह के ही अन्तर्गत था परन्तु बाद में लोगों की बढ़ती हुई कामासक्ति को देखकर भगवान् महावीर ने इसे पृथक महाव्रत के रूप में बदल दिया तथा अन्य व्रतों की अपेक्षा इसे सर्वाधिक दुस्तर बतलाया। इस तरह ग्रन्थ में अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन तीन महाव्रतों पर विशेष जोर दिया गया है। इनके अतिरिक्त सत्य और अचौर्य इन दो नैतिक व्रतों को मिलाकर महाव्रतों की संख्या पाँच नियत की गई है। सत्य और अचौर्य व्रत के भी मूल में अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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