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________________ ३२२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन संयम की रक्षा के निमित्त समतापूर्वक उपभोग करे । जब देखे कि संयम का पालन करना संभव नहीं है या भयानक रोग हो गया. है या कोई अन्य आपत्ति आ गई है जिससे बचना संभव नहीं हैं तो सब प्रकार के आहार का त्याग करके अनशन तप करे । अনুशलन जब मुक्ति का साधक धीरे-धीरे अपने चारित्र का विकास करता गृहस्थधर्म की अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर लेता है या संसार के विषय-भोगों से विरक्त हो जाता है तो वह ज्ञान की प्राप्ति तथा चारित्र के विकास के लिए माता-पिता से आज्ञा लेकर सभी प्रकार के पारिवारिक स्नेहबन्धन को तोड़कर जंगल में चला जाता है और किसी गुरु से दीक्षा लेकर या गुरु के न मिलने पर स्वयं साधु-धर्म को अङ्गीकार कर लेता है । यद्यपि गृहस्थावस्था में भी ज्ञान और चारित्र की साधना की जा सकती है परन्तु गृह में नाना प्रकार के सांसारिक कार्यों के होने से धर्म की साधना में बहुत बाधाएँ आती हैं । अतः प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में धर्म की साधना के लिये संन्यासाश्रम की व्यवस्था मिलती है । यहाँ आकर साधक सभी प्रकार के सांसारिक बन्धनों से दूर हटकर गृहस्थ के द्वारा दिए गए भिक्षान्न पर जीवन-यापन करता हुआ एकान्त में आत्मचिन्तन करता है । इसी प्रकार उत्तराध्ययन में भी चारित्र और ज्ञान के विकास की पूर्णता के लिए संन्यासाश्रम को आवश्यक बतलाया गया है । इस आश्रम में रहनेवाले साधक को 'साधु' या ' श्रमण' कहा जाता है । भिक्षान्न द्वारा जीवन-यापन करने के कारण इन्हें 'भिक्षु' भी कहा गया है। इस भिक्षा की प्राप्ति के सम्बन्ध में बहुत ही कठोर नियम हैं जिनके मूल में अहिंसा और अपरिग्रह की भावना निहित है । साधु के आचार से सम्बन्धित जितने भी नियम हैं उन सबके मूल में अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना निहित है । इन सभी नियमों के पालन करने का परम्परया या साक्षात् फल कर्मनिर्जरा के बाद मुक्ति बतलाया गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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