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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३२१ विद्या व मन्त्रादि शक्तियों के प्रयोग से प्राप्त हुए आहारादि में वे सभी हिंसादि दोष साधु को लगते हैं जो वस्तु के क्रय-विक्रय करने आदि में गहस्थ को लगते हैं । ऐसा करने से साध क्रय-विक्रय के द्वारा जीविका-निर्वाह करनेवाला गृहस्थ हो जाता है। अतः इनके प्रयोग का निषेध किया गया है। __५. जहाँ बैठकर साधु भोजन करे वह स्थान चारों तरफ से ढका हुआ, त्रस जीवों के निवास से रहित तथा स्वच्छ हो। इसके अतिरिक्त भोजन करते समय भोजन को जमीन पर न गिराए । साधु 'यह भोजन अच्छी तरह पकाया गया है', 'अच्छी तरह छीला गया है', 'मधुर है', 'खराब है' आदि सावद्य-वचनों का भी प्रयोग न करे ।' इसके अतिरिक्त दिन में एक बार ही भोजन करे ।
६. साधु भिक्षार्थ जाते समय अपने पात्रों को अच्छी तरह देख-भाल लेवे तथा भिक्षा लेने के लिए आधा योजन (परमार्द्धयोजन ) की दरी तक ही जाए। इसके अतिरिक्त भोजन के लिए जो समय ( तृतीय पौरुषी ) नियत है उसी में भोजन करे । रात्रि में कदापि भोजन न करे। ___ इस तरह साधु को आहार के ग्रहण करने में बहुत से कठिन नियमों का पालन करना पड़ता है। भिक्षाचर्या नामक तप के प्रसङ्ग में कुछ अन्य विशेष नियमों का वर्णन किया जाएगा। इस आहारसम्बन्धी वर्णन से स्पष्ट है कि साध हिंसादि दोषों को जहाँ तक संभव हो बचाने की कोशिश करे। इसके अतिरिक्त सरस भोजन की लालसा न करता हुआ अल्प, नीरस तथा गृहस्थ के भोजन का शेषान्न (जो कई घरों से भिक्षा के द्वारा लाया गया हो) १. अप्पपाणेऽप्पबीयम्मि पडिच्छन्नम्मि संबडे । समयं संजए भंजे जयं अपरिसाडियं ।। सुक्कडित्ति सुपक्कित्ति सुच्छिन्ने सुहडं मडे । सुणिट्ठिए सुलट्ठिसत्त सावज्जं वज्जए मुणी ।।
-उ० १.३५.३६. २. अवसे सं भंडगं गिज्झ चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोयणाओ विहारं विहरए मुणी ॥
-उ० २६ ३६.
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