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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २८७ हैं – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ।' इन्हें ही योगदर्शन के शब्दों में क्रमशः मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग कहा जा सकता है क्योंकि योगदर्शन में चित्तवृत्ति के निरोध को 'योग' शब्द से कहा जाता है । इस तरह योगदर्शन का यह 'योग' शब्द जैनदर्शन के 'योग' शब्द से भिन्न है क्योंकि जैनदर्शन में प्रवृत्ति मात्र को योग कहा जाता है तथा उसके निरोध को 'गुप्ति' । १. मनोगुप्ति - संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ में प्रवृत्त हुए मन के व्यापार को रोकना मनोगुप्ति है । 3 किसी को मारने की इच्छा करना 'संरम्भ', मारने के साधनों पर विचार करना 'समारम्भ' एवं मारने के लिए क्रिया प्रारम्भ करने का विचार 'आरम्भ' है । मन के ये क्रमिक तीन विकल्प हैं । अत: इन तीनों को रोकना आवश्यक है । मन के विचारों की प्रवृत्ति सत्य, असत्य, मिश्र ( सत्य और असत्य से युक्त ) और अनुभय ( सत्यासत्य से रहित ) इन चार विषयों में सम्भव होने से मनोगुप्ति के चार प्रकार बतलाए हैं : १. सत्यमनोगुप्ति ( सद्भूत पदार्थों में प्रवर्तमान मन की वृत्ति को रोकना), २. असत्यमनोगुप्ति ( मिथ्या पदार्थों में प्रवर्तमान मन की वृत्ति को रोकना ), ३. सत्यमृषामनोगुप्ति ( मिश्र - सत्य एवं असत्य से मिश्रित मन के विचारों को रोकना) और ४. असत्य मृषा मनोगुप्ति ( अनुभय - सत्य, असत्य १. देखिए - पृ० २८५, पा० टि० ३; उ० ६.२०; १२.३,१७; १६.८8; २४.१,१६; २६.३५;३०; ३; ३२.१६ आदि । २. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः - पा० यो० १.२. ३. संरंभसमारंभ आरंभ य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई || —उ० २४.२१. ४. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चामोसा य मणगुत्तीओ चउब्विहा || Jain Education International -उ० २४.२०. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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