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प्रकरण २ : संसार
[ १४३ पुण्य-क्रियाओं को करता है । इन पाप और पुण्य रूप क्रियाओं के करने से क्रमशः पाप और पुण्य कर्मों का बन्ध होता है। यहाँ एक बात ध्यान रखने योग्य है कि द्वेष के भी मूल में राग ही कारणरूप से कार्य करता है क्योंकि अमनोज्ञ वस्तु में जो द्वेष होता है उसके मूल में भी किसी न किसी के प्रति राग की भावना अवश्य रहती है। जिस व्यक्ति ने कभी किसी से राग (प्रेम) किया ही नहीं सिर्फ द्वेष, क्रोध और घृणा ही करना जानता है उसे भी अपने क्रोधी-स्वभाव से राग अवश्य है अन्यथा अपनी इच्छा के प्रतिकल आचरण करने वाले से कभी द्वेष न करे। भगवान महावीर में भी किया गया राग पुण्य-कर्म के बन्ध में कारण है। इसीलिए ग्रन्थ में गौतम गणधर को लक्ष्य करके भगवान् ने कहा है कि हे गौतम ! मुझसे ममत्व मत करो।'
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि राग-द्वेष का कारण क्या है ? क्या मनोज्ञ वस्तु राग का और अमनोज्ञ वस्तु द्वेष का कारण है ? इस विषय में ग्रन्थ का स्पष्ट मत है कि यद्यपि मनोज्ञ और अमनोज्ञ वस्तु में क्रमश : राग और द्वेष की भावना उत्पन्न होती है परन्तु ये मनोज्ञामनोज्ञ विषय रागवान व्यक्ति के लिए ही क्रमशः राग और द्वेष को उत्पन्न करते हैं, वीतरागी के लिए ये न तो राग को उत्पन्न करते हैं और न द्वेष को उत्पन्न करते हैं। इस तरह रूपादि विषय न तो रागद्वेष को शान्त करते हैं और न उनकी उत्पत्ति के कारण हैं अपितु जो जीव उन विषयों में राग अथवा द्वेष करता है वह ही स्वयं के राग अथवा द्वेष के कारण विकृति को प्राप्त होता है। इसमें रूपादि
१. वोच्छिदं सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम मा पमायए ।
-उ०१०.२८. २. चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो ।
पियं न विज्जइ किंचि अप्पियं पि न विज्जई । एगंतरत्ते रुइरंसि रूवे अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥
-उ० ३२.२६.
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