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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
१
विषयों का कोई दोष नहीं है । इसीलिए प्रव्रज्या लेते समय नमिराजर्षि इन्द्र के द्वारा यह कहने पर कि 'आपका अन्तःपुर जल रहा है' अपने संकल्प से विचलित नहीं होते हैं । यदि उनके स्थान पर कोई रागवान् पुरुष होता तो अवश्य ही राग के कारण अन्तःपुर की रक्षा आदि का तथा द्वेष के कारण अन्तःपुर में आग लगाने वाले
दण्डित करने आदि का प्रयत्न करता । इसके अतिरिक्त कौन-कौन से विषय मनोज्ञ हैं और कौन अमनोज्ञ हैं ? यह कह सकना संभव नहीं है क्योंकि कोई एक विषय किसी को मनोज्ञ लगता है और दूसरे को वही विषय अमनोज्ञ तथा तीसरे को उपेक्षणीय | 3 अतः मनोज्ञामनोज्ञ विषय क्रमशः राग और द्वेष के कारण नहीं माने जा सकते हैं । यदि ऐसा न माना जाएगा तो वीतरागी और मुक्त जीवों को भी रागादि की उत्पत्ति होने लगेगी क्योंकि मनोज्ञामनोज्ञ विषय उनके भी समक्ष रहते हैं । इसके अतिरिक्त व्यक्तिका कर्म करने के विषय में जो स्वातन्त्र्य है वह भी समाप्त हो जाएगा ।
अज्ञान - जब मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषय क्रमशः राग एवं द्वेष के कारण नहीं हैं तो फिर राग-द्वेष का कारण क्या है ? इस
१. न कामभोगा समयं उवेंति न यावि भोगा विगई उवेंति । ओसीय परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥
- उ० ३२.१०१. यहाँ पर मनोज्ञामनोज्ञ विषयों को जो रागादि का अहेतु बतलाया गया है वह उपादानकारण की अपेक्षा से है क्योंकि निमित्तकारणता उनमें अवश्य वर्तमान है। यदि ऐसा न होता तो मनोज्ञामनोज्ञ विषयों के उपस्थित होने पर रागादि विकार उत्पन्न न होते । इसके अतिरिक्त ग्रन्थ का यह कथन कि विषयभोग विषफल की तरह हैं कैसे संगत होगा ?
२. उ० ६.१२-१६.
३. जैसे मृत षोडशी सुन्दरी बाला को देखकर कोई कामुक युवक रागाभिभूत होकर कहता है 'अहो कितनी सुन्दरी थी !', शत्रु द्वेषवश कहता है 'अच्छा हुआ जो वह मर गई' परन्तु एक वीतरागी साधु संसार की असारता का विचार करता हुआ उपेक्षाभाव रखता है । इस तरह एक ही विषय कामुक व्यक्ति को मनोज्ञ, शत्रु को अमनोज्ञ और वीतरागी साधु को उपेक्षणीय होता है ।
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