SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४४१ माध्यम धर्म है। जीवादि की स्थिति का अप्रेरक माध्यम अधर्म है। सब द्रव्यों के ठहरने का आधार आकाश है और वस्तु में प्रतिक्षण होनेवाले परिवर्तन में कारण काल है। इस तरह लोक में इन छहों द्रव्यों के संयोग और वियोग से इस सृष्टि का यन्त्रवत् संचालन होता रहता है। इसमें ईश्वर तत्त्व की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर तत्त्व को स्वीकार न करने के कारण धर्मादि द्रव्यों की कल्पना करनी पड़ी है। जीव अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन करके परमात्मा बन सकता है और अकर्त्तव्य कर्मों को करके अधम । परमात्म-अवस्था में जीव सब प्रकार के कर्मों से परे होकर तटस्थ हो जाता है । एकेन्द्रियादि जीवों की सत्ता कणकण में स्वीकार की गई है और वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। जीवों का विभाजन पाश्चात्यदर्शन के लीब्नीज के जीवाणुवाद और बर्गसां के रचनात्मक विकासवाद से मिलता-जुलता है । ___ इस प्रकार यथार्थवाद का चित्रण करने के कारण द्रव्य का स्वरूप भी एकान्त रूप से नित्य या एकान्त रूप से क्षणिक न मानकर अनित्यता से अनुस्यूत नित्य माना गया है। द्रव्य में प्रतिक्षण होनेवाले परिवर्तन तथा उस परिवर्तन में वर्तमान एक इकाई या सामञ्जस्य को स्वीकार करते हुए द्रव्य का स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक ( नित्य ) माना गया है। चैतन्य आदि जीव के नित्य धर्म ( गुण ) हैं और मनुष्य, देव आदि उसकी विभिन्न अवस्थाएँ ( पर्याएँ )। नित्यता द्रव्य का गुण ( नित्य-धर्म ) है और अनित्यता उसकी उपाधि (पर्याय-अनित्य-धर्म ) । गुण और पर्यायों ( अनित्य धर्मों ) को द्रव्य से न तो सर्वथा पृथक् किया जा • सकता है और न गुण-पर्यायों के समूह को ही द्रव्य कहा जा सकता है । अतः गुण और पर्यायवाले को द्रव्य कहा गया है। इस तरह यह द्रव्य ( आधारविशेष ) गुण और पर्यायों से सर्वथा भिन्न न होकर कथंचित भिन्न व कथंचित अभिन्न है। इस तरह विश्व की रचना और उसमें वर्तमान सृष्टि-तत्त्वों का वर्णन करके ग्रन्थ में चेतन और अचेतन पुदगल के परस्पर संयोग की अवस्था को संसार कहा गया है। जब तक चेतन के साथ अचेतन पुद्गल का सम्बन्ध रहता है तब तक वह संसारी कहलाता है। जब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy