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________________ प्रकरण २ : संसार [ १३७ सुख वास्तव में इनके त्यागने में ही है। जैसे :' किसी पक्षी के पास मांस का टकड़ा देखकर अन्य पक्षीगण उस पर झपटते हैं और उससे वह मांस का टुकड़ा छीनने के लिए उसे नाना प्रकार से पीड़ित करते हैं। जब वह पक्षी उस मांस के टुकड़े को छोड़ देता है तो अन्य पक्षीगण उसे सताना भी छोड़ देते हैं। इसीलिए ग्रन्थ में सांसारिक विषयभोगों से प्राप्त होनेवाले सुखों की अपेक्षा विषयभोगों से विरक्त मुनि को प्राप्त होनेवाले आत्मानन्दरूपी सुख को श्रेष्ठ बतलाया गया है । विषय-भोगों में जो हमें सुख प्रतीत होता है वह हमारे रागद्वेषरूप मन का विकार है क्योंकि जीव जिससे राग करता है उसका संयोग होने पर और जिससे द्वेष करता है उसके विनष्ट होने पर प्रसन्न होता है। जैसे: जंगल में दावाग्नि से जलते हुए वन्य पशुओं को देखकर अन्य पशु राग-द्वेष के कारण आनन्दित होते हैं उसी तरह सम्पूर्ण संसार राग-द्वेषरूपी अग्नि से जल-भन रहा है। इसके अतिरिक्त इस जीव को मृत्युरूपी व्याध जरारूपी जाल से वेष्टित करके दिन-रातरूपी शस्त्रधाराओं से पीड़ित कर रहा है।४ अत: १. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं । आमिसं सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा । -उ०१४.४६. २. बालाभिरामेसु दुहावहेसु न तं सुहं कामगुणेसु रायं । विरत्तकामाण तवोधणाणं जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं । -उ० १३ १७. .. ३. दवग्गिणा जहारण्णे डज्झमाणेसु जन्तुसु । अन्ने सत्ता पमोयन्ति रागद्दोसवसं गया । एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया। इज्झमाणं न बुज्झामो रागद्दोसग्गिणा जगं । -उ० १४.४२-४३. तथा देखिए-उ० ६.१२; १४.१०; १६.१६,२४-२५, ४७. ४. मच्चुणाऽभाहओ लोगो जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता एवं ताय ! विजाणह ॥ -उ० १४.२३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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