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१३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सुख कहाँ ?' इसीलिए सभी गीतों को विलापरूप, नृत्य को एक प्रकार की विडम्बनारूप, आभूषणों को भाररूप तथा कामादि भोगों को दुःखरूप बतलाया गया है।२ भोगकाल में ये विषयभोग यद्यपि सुन्दर एवं सुखकर प्रतीत होते हैं परन्तु परिणाम में 'किंपाक' नामक विषफल की तरह प्राणघातक होते हैं। इसके अतिरिक्त ये विषय-भोग भोगने से इच्छा-ज्वाला को और अधिक तीव्रतर कर देते हैं क्योंकि जैसे-जैसे किसी वस्तु की प्राप्ति होती जाती है वैसे-वैसे लोभ (आकांक्षा) भी बढ़ता जाता है। इस तरह ये विषय-भोग यद्यपि क्षणभर के लिए कुछ सुख अवश्य देते हैं परन्तु कालान्तर में भयंकर कष्टों को ही अधिकमात्रा में देते हैं । १. नाहं रमे पक्खिणि पंजेरे वा ।
उ० १४.४१. भोगामिसदोसविसन्ने..... बज्झई मच्छिया व खेलम्मि ।
-उ० ८.५. २. सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नट्ट विडम्बियं । सव्वे आभरणा भारा सव्वे कामा दुहावहा ।
-उ० १३.१६. ३. जहा किम्पागफलाणं परिणामो न सुन्दरो। ' एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुन्दरो॥
-उ० १६.१८.; तथा देखिए-उ० ४.१३; १३.२०-२१; १४.१३; १६.१२; ३२.२०. ४. जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निद्वियं ।।
-उ० ८.१७. पुढवी साली जवा चेव हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स".॥
-उ० ६.४६. तथा देखिए-उ० १४.३६.
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