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१३८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन संसार में सुख कहाँ ? यदि किसी तरह सांसारिक सुख के साधनभूत कामभोगों को प्राप्त भी कर लिया जाए तो भी इनकी रक्षा करना बड़ा कठिन है क्योंकि ये चंचल स्वभाव के होने के कारण अच्छी तरह रोक रखने पर भी इच्छा के विपरीत छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। जैसे पत्र, फल आदि से रहित वृक्ष को पक्षीगण छोड़कर चले जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में संसार के विषयभोगों को सुख का साधन कैसे माना जा सकता है ? इन्हें तो दु:खों की खान ही कहना चाहिए ।२ विषय-भोगसम्बन्धी इच्छाएँ अनन्त एवं दुष्पूर हैं। अतः इनसे वास्तविक सुख की कल्पना करना मात्र मन को संतोष दिलाना है।
जिन्हें. वास्तविकता का ज्ञान नहीं है वे ही इन सांसारिक सुखों को प्रिय समझते हैं। इसके अतिरिक्त वे नाना प्रकार की हिंसादि क्रियाओं में प्रवत्त होकर मिट्टी को एकत्रित करनेवाले शिशुनाग (केंचुआ-द्वीन्द्रिय जीव ) की तरह मन-वचन-काया से भोगों में मूच्छित होकर इहलोक और परलोकसम्बन्धी दु:खों के १. अच्चेइ कालो तरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण णिच्चा । उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ।।
-उ० १३.३१. इमे य बद्धा फन्दन्ति मम हत्थज्जमागया।
-उ० १४.४५. २. इमं सरीरं अणिच्चं असुई असुइ संभवं । . असासयावासमिणं दुक्ख केसाण भायणं ।।
- उ० १६.१३. तथा देखिए-उ० १६६८; १०.३. खणमित्तसुक्खा वहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।
-उ० १४.१३ ३. हिंसे वाले मुसावाई माइल्ले पिसणे सढे । भुंजमाणो सुरं मंस सेयमेयं ति मन्नई ।।
-उ० ५.६. तथा देखिए-3०५.५-८; ६.५१; १३.१७; १४.५. .
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