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________________ २६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . में कहा है कि साधु को ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का आलम्बन करके, दिन में उत्पथ ( ऊँचा-नीचा ) से रहित मार्ग में चार हाथ प्रमाण भूमि को चक्षु के द्वारा एकाग्रचित्त से सावधानीपूर्वक देखते हुए गमन करना चाहिए जिससे जीवों की हिंसा न हो। गमन करते समय सावधानी बनाए रखने के लिये आवश्यक है कि रूपादि विषयों तथा अध्ययन (स्वाध्याय) में लगी हुई,चित्तवत्ति को वहाँ से हटाकर गमन के प्रति ही चित्तवृत्ति को सावधानी से लगाए रखें ।' ऐसा करने से अहिंसा महाव्रत का पालन होता है। इन्द्र-नमि संवाद में ईर्यासमिति को धनूष की प्रत्यञ्चा कहा है। इससे इसकी उपयोगिता और महत्त्व का पता चलता है। २. भाषासमिति-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता (वाचालता) और विकथा (धर्मविरुद्ध कथा) इन आठ दोषों से रहित समयानुकूल अदुष्ट एवं परिमित वचन बोलना भाषासमिति है। अर्थात सावधानीपूर्वक समयानुकूल, हित-मित-प्रिय १. आलंबणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए । तत्थ आलंबणं नाणं दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वुत्ते मग्गे उप्पह वज्जिए । दव्वओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ। . कालओ जाव रीइज्जा उवउत्ते य भावओ ॥ इंदियत्थे विवज्जित्ता सज्झायं चेव पञ्चहा । तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्ते रियं रिए ।। -उ० २४.४-८. तथा देखिए-उ० २०.४० ; २५.२; २६.३३ आदि । २. धण परक्कम किच्चा जीवं च ईरियं सया। घिई च केयणं किच्चा सच्चेण परिमंथए ।। -उ० ६.२१. ३. कोहे माणे य मायाए लोभे य उव उत्तया। हासे भये मोहरिए विकहापु तहेव य ।। एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए। असावज मियं काले भासं भासिज्ज पन्नवं ।। -उ० २४.६.१०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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