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________________ प्रकरण ४: सामान्य साध्वाचार [२६३ एवं सत्य वचन बोलना सत्य महाव्रत का पालन करने में सहायक है। ३. एषणासमिति-यद्यपि साधु सब प्रकार की धन-सम्पत्ति का परित्याग कर देता है परन्तु जीवन-निर्वाह के लिए आहारादि की आवश्यकता पड़ती ही है। अतः वह गृहस्थ के घर से नियमानुकूल आहारादि को मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करता है। इस आहार आदि की प्राप्ति में एवं उसके उपभोग आदि में जिस प्रकार की सावधानी आवश्यक होती है उसे एषणासमिति कहते हैं। इस विषय में ग्रन्थ में सामान्यरूप से बतलाया गया है कि साधु आहार, उपकरण (वस्त्र, पात्र आदि) और शय्या (उपाश्रय-निवासस्थान) आदि की गवेषणा करते समय गवेषणा के उद्गम एवं उत्पादनसम्बन्धी, ग्रहण करने के ग्रहणैषणा-सम्बन्धी एवं उपभोग करने के परिभोगैषणा-सम्बन्धी दोषों को बचाए' अर्थात् आहारादि के खोजने सम्बन्धी, ग्रहण करने सम्बन्धी एवं उपभोग करने सम्बन्धी शास्त्रोक्त छियालीस दोषों को जिनसे साध हिंसादि दोषों का भागी हो सकता है, बचाने का प्रयत्न करे। १. गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा। आहारोवहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए ।। उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयम्मि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई ।। -उ० २४.१२-१३. २. एषणासमिति में ध्यान रखने योग्य छियालीस दोष इस प्रकार हैं : क. गवेषणा-सम्बन्धी ३२ दोष - इनमें १६ दोष उद्गम-सम्बन्धी हैं जिनका निमित्त गृहस्थ होता है तथा १६ दोष उत्पादन-सम्बन्धी हैं जिनका निमित्त साधु होता है। जैसेः उद्गम-सम्बन्धी १६ दोष-१. आधाकर्म ( साधु को उद्देश्य करके बनाया गया आहारादि ), २. औद्देशिक ( सामान्य याचकों के उद्देश्य से बनाया गया ), ३. पूतिकर्म ( शुद्ध आहार को आधाकर्मादि से मिश्रित करके बनाया गया ), ४. मिश्रजात ( स्वयं को एवं साधु को एकसाथ मिलाकर बनाया गया ), ५. स्थापना ( साधु के लिए अलग सुरक्षित रखा गया ), Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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