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प्रकरण ८ ! उपसंहार
[४४७ इस प्रकार उत्तराध्ययन में तत्त्वजिज्ञासु व मुमुक्षु के लिए जिस तत्त्वज्ञान, मुक्ति व मुक्ति के पथ का वर्णन मिलता है वह विशेषकर साधु के आचार से सम्बन्धित है। परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि यह ग्रन्थ सिर्फ साधुओं के लिए ही उपयोगी है क्योंकि इसमें सरल, साहित्यिक व कथात्मक शैली में व्यवहारोपयोगी गहस्थ-धर्म का भी प्रतिपादन होने से जनसामान्य के लिए भी कई दृष्टियों से उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण है। इसमें चित्रित समाज व संस्कृति से तत्कालीन बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातों का पता चलता है। जैसे: वर्णाश्रम-व्यवस्था, ब्राह्मणों का प्रभुत्व व उनका सदाचार से पतन, कर्मणा जातिवाद की स्थापना, यज्ञों का प्राधान्य, काम-भोग की ओर बढ़ती हुई मानव की सामान्य प्रवृत्तियाँ, विभिन्न मत-मतान्तर, राज्य-व्यवस्था, समद्रयात्रा, व्यापार, खेती, विवाह, दाह-संस्कार, पशु-पालन आदि। __ इस तरह इस ग्रन्थ का धर्म व दर्शन के अतिरिक्त साहित्य, इतिहास, भूगोल, भाषाविज्ञान और तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति आदि की अपेक्षा से भी बहुत महत्त्व है। इसीलिए जैन एवं जैनेतर सभी विद्वानों ने इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है तथा इस पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है व आगे भी लिखा जाता रहेगा।
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