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________________ ४४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन बाधाएँ (परीषह ) आती हैं उन सब पर विजय प्राप्त करना आवश्यक होता है और वीर योद्धा की तरह आयु के अंतिम क्षण तक संयम में अडिग रहना पड़ता है। तप साध के सदाचार की परीक्षा के लिए कसौटीरूप है। साध्वाचार पालन करने की दुष्करता का जो प्रतिपादन किया गया है वह इसी तप की अपेक्षा से किया गया है। प्रकृत ग्रन्थ में वर्णित तप का स्वरूप विशेषकर ध्यानतप योगदर्शन और बौद्धदर्शन में वर्णित समाधि से मिलता-जुलता. है। इस तरह साधु जीवन-पर्यन्त तपोमय जीवन यापन करते हुए मृत्यु-समय सब प्रकार के आहारादि का त्याग करके समाधिमरणपूर्वक शरीर का त्याग करता है। इस शरीर त्याग के बाद उसे जिस फल की प्राप्ति होती है उसका नाम है--मुक्ति । यह मुक्ति की अवस्था सब प्रकार के कर्मबन्धनों से रहित, अशरीरी, अत्यन्त दु:खाभावरूप, निरतिशय सुखरूप और अविनश्वर है। इसे प्राप्त करने के बाद जीव का पुनः संसार में आवागमन नहीं होता है । इनका निवास लोक के उपरितम प्रदेश में माना गया है। अन्तिम जन्म की उपाधि की अपेक्षा से इनमें भेद संभव होने पर भी कोई तात्त्विक भेद नहीं है। ग्रन्थ में जो मुक्ति की अवस्था चित्रित की गई है वह अलौकिक है। वहाँ न तो स्वामी-सेवकभाव है और न कोई अभिलाषा । यह पूर्ण निष्काम व संसार से परे चेतन जीव की स्व-स्वरूप की स्थिति है। इस अवस्था में सब प्रकार के बन्धनों का अभाव हो जाने से इसे मुक्ति कहा गया है। ग्रन्थ में यद्यपि विदेह-मूक्ति का ही वर्णन किया गया है परन्तु जीवन्मुक्ति के भी तथ्य वर्तमान हैं। केवली या केवलज्ञानी की जो स्थिति है वह जीवन्मुक्ति की अवस्था है क्योंकि ये संसार में रहकर भी जल से भिन्न कमल की तरह उससे अलिप्त रहते हैं तथा मृत्यु के उपरान्त नियम से उसी भव में विदेहमुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। मुक्ति प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार की जाति, आयु, स्थान आदि का महत्त्व नहीं है। वह सदा-सर्वदा सबके लिए खुला द्वार है। मुक्तों के विषय में इतना विशेष है कि सभी मुक्त जीव अपने पुरुषार्थ से ही मुक्त हुए हैं । उनमें ऐसा एक भी जीव नहीं है जो अनादिमुक्त हो या बिना पुरुषार्थ किए ही ईश्वर आदि की कृपा से मुक्त हुआ हो। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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