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________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४४५ आदि पाँच नैतिक महाव्रतों की रक्षा की भावना निहित है। साधु जो भी नियम या उपनियम ग्रहण करता है उन सबका साक्षात् या परम्परया फल कर्म-निर्जरा व मुक्ति बतलाया गया है। इतना विशेष है कि किसी भी एक नियम का पालन करने पर अन्य सभी नियमों का भी पालन करना आवश्यक हो जाता है । ___ साधु जिन अहिंसा दि पाँच नैतिक व्रतों का सूक्ष्मरूप से पालन करता है उनके भी मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना निहित है क्योंकि अहिंसा का अर्थ है-मन-वचन-काय से तथा कृत-कारितअनुमोदना से किसी को जरा भी कष्ट न देना । असत्य-भाषण, चोरी, स्त्री-सेवन और धनादिसंग्रह में स्वाभाविक है कि किसी न किसी रूप में हिंसा का दोष लगे। अत: सत्यादि व्रतों के लक्षण में भी अहिंसा की भावना को ध्यान में रखा गया है। इस अहिंसा की पूर्णता अपरिग्रह (वीतरागता) की भावना पर निर्भर है क्योंकि सभी शुभाशुभ प्रवृत्तियों का कारण राग है। राग के वशीभूत होकर ही जीव धनादि-संग्रह और हिंसादि में प्रवृत्त होता है। अतः साधु को अपनी अशुभात्मक प्रवृत्ति को रोकने के लिए गुप्तियों का और शुभ-व्यापार में सावधानीपूर्वक प्रवत्ति के लिए समितियों का उपदेश दिया गया है। इस तरह इन पाँच नैतिक व्रतों की रक्षा करते हुए आचरण करना ही साधु का सदाचार है। ... इस तरह यद्यपि साधु का सदाचार पूर्ण हो जाता है परन्तु सैकड़ों भवों से संचित पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने के लिए एक विशेष कर्त्तव्य-कर्म करना पड़ता है जिसका नाम है-तप । तप कर्मों को नष्ट करने के लिए एक प्रकार की अग्नि है जो साधु . के सामान्य सदाचार से पृथक् नहीं है क्योंकि तप में जिन बाह्य और आभ्यन्तरिक क्रियाओं का पालन करना बतलाया गया है साध उन सभी क्रियाओं का प्रायः प्रतिदिन पालन करता है। अतः उन सभी नियमों के पालन करने में दृढ़ आत्मसंयम बरतना ही तप है। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से तप मुख्यतः दो प्रकार का है। दोनों में प्रधानता आभ्यन्तर तप की है। आभ्यन्तर तपों में ज्ञान की प्राप्ति के लिए मुख्यरूप से आत्म-चिन्तन किया जाता है। तप करते समय जितनी भी क्षुधा, तृषा आदि सम्बन्धी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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