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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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अब यहाँ इस बात का विचार करना है कि अहिंसा और अपरिग्रह इन दो महाव्रतों का पाँच महाव्रतों के रूप में क्यों
और कैसे विस्तार हुआ ? अहिंसा से द्वेषात्मक क्रोध और मान कषाय का तथा अपरिग्रह से रागात्मक माया और लोभ कषाय का त्याग हो जाता है। राग-द्वेषरूप ये चार कषाय ही संसार के कारण हैं । अतः अहिंसा और अपरिग्रह से ही संसार के कारणों का निरोध हो जाने पर अन्य व्रतों की आवश्यकता नहीं रह जाती है परन्तु जनसामान्य की बदलती हुई कुटिल मनोवृत्ति को देखकर नियमों और उपनियमों के रूप में अनेक व्रतों का विस्तार किया गया। जैसाकि केशि-गौतम संवाद और यज्ञविषयक संवादों से पता चलता है कि महावीर के काल में मनुष्यों की मनोवृत्ति विषय-भोगों और हिंसाप्रधान यज्ञादि क्रियाओं की ओर अधिक थी जिससे वे अपने स्वार्थ से अन्धे होकर विश्वबन्धुत्व की भावना भूल चुके थे और विषय-भोगों तथा हिंसा-प्रधान यज्ञों को करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानते थे । अतः अहिंसा और अपरिग्रह का उपदेश आवश्यक हुआ। अपनी कुटिल मनोवृत्ति के कारण कहीं झूठ बोलकर अपने दोषों को छिपा न लेवें तथा लुके-छिपे ( अप्रकटरूप से) स्वच्छन्द आचरण न करें अतः सत्य और अचौर्य इन दो व्रतों को भी मल महाव्रतों में जोड़ दिया गया। इसके बाद कामवत्ति की ओर बढ़ती हई मनोवृत्ति को देखकर ब्रह्मचर्य को भी पृथक् महाव्रत के रूप में जोड़ दिया गया। इस तरह महाव्रतों की संख्या पाँच हो गई। इसी प्रकार रात्रिभोजन की
१५. विरागता ( लोभत्याग ), १६-१८, मन-वचन-काय निरोध, १६-२४. षट्काय (पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और द्वीन्द्रियादि त्रस ) के जीवों की रक्षा, २५. संयम, २६. वेदना सहिष्णुता और २७. मारणान्तिक सहिष्णुता। इननामों में कुछ अन्तर भी पाया जाता है। देखिए-उ० ३१.१०, १८; ने० टी०, पृ० ३४४, ३४६; आ० टी०,
पृ० १३६२, १४०१; श्रमणसूत्र, पृ० १७१-१७३; समवायाङ्ग, समवाय २७.
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