________________
१३२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन आदि पक्षियों से नोचा जाना; छलपूर्वक कठोर पाशों से बांधकर मग की तरह मारा जाना; पिपासा से व्याकूल होकर वैतरणी नामक नदी में जल पीने के लिए जाने पर उस्तरे की तरह तीक्ष्ण धारा से व्यापादित किया जाना; किसी तरह पिपासा को सहन करने पर भी वहाँ पर स्थित अधर्मियों के द्वारा तांबा, लोहा, सीसा, लाख आदि पदार्थ खूब गरम करके चिल्लाते रहने पर भी पिलाया जाना; छाया की अभिलाषा से वृक्षादि की छाया का आश्रयण करने पर तीक्ष्ण असिपत्रों (तलवार की तरह तीक्ष्ण पत्ते) से छेदित किया जाना; यमदूतों की तरह स्वयं के शरीर को काटकर खिलाना; शरीर पर तीक्ष्ण औजारों से नक्कासी आदि करना; लुहार की तरह कटना-पीटना आदि।' इस प्रकार के विविध नारकीय कष्टों को सुनकर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
नारकी जीवों की ही तरह तिर्यञ्चों को भी अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं जिनको हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं। नारकी और तिर्यञ्चों के कष्टों में अन्तर इतना है कि नारकी जीवों की असमय में मृत्यु न होने के कारण उनके शरीर बारम्बार छिन्न-भिन्न किए जाने पर भी फिर जुट जाते हैं जबकि तिर्यञ्चों के शरीर एकबार छिन्न-भिन्न होने पर फिर नहीं जुटते हैं। इसके अतिरिक्त तिर्यञ्चों को कुछ भौतिक सुख-सुविधाएँ भी प्राप्त हैं और उनके कष्ट नारकी जीवों की अपेक्षा बहुत ही अल्प हैं। इस तरह चारों गतियों के जीवों में सर्वाधिक कष्ट नारकियों को ही प्राप्त होते हैं ।
मनुष्य व देवगति के सुखों में दुःखरूपता :
इस तरह यद्यपि नरक और तिर्यञ्च योनियों में ही कष्टों की अधिकता है परन्तु मनुष्य और देव योनियों में तो नाना प्रकार के विषयसूख उपलब्ध होते हैं फिर उन्हें क्यों कष्टों से पूर्ण कहा गया है? इस विषय में एकमात्र कारण है शरीर तथा विषयभोगों की अनित्यता। अतः ग्रन्थ में कहा है-यह जीवन वृक्ष के पीले पत्ते और ओस की बूंद की तरह अल्पस्थायी है। फेन के बुलबुले और विद्युत् की तरह चञ्चल है । इसके अतिरिक्त यह जीवन प्रतिपल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org