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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२९७ जा रही हो उसके तीन भाग करके प्रत्येक भाग को दोनों तरफ से देखना चाहिए या फिर प्रत्येक भाग को तीन-तीन बार (षटपुरिम व नवखोटक ) दखना चाहिए। यदि फिर भी जीव उसमें रह जाए तो हाथ से निकालकर जीव की रक्षा करनी चाहिए। इस तरह सावधानीपूर्वक की गई प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना प्रशस्त कहलाती है और असावधानीपूर्वक की गई प्रतिलेखना व प्रमार्जना अप्रशस्त कहलाती है। ग्रन्थ में अप्रशस्त प्रतिलेखना के कुछ प्रकार बतलाए गए हैं जिनका त्याग आवश्यक है । अप्रशस्त प्रतिलेखना के कुछ प्रकार ये हैं :२
१. आरभटा ( प्रतिलेख्यमान वस्त्र की पूर्ण प्रतिलेखना किए बिना ही बीच में दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना करने लगना ), २. सम्मर्दा ( वस्त्र के कोने को पकड़कर या उसके ऊपर बैठकर प्रतिलेखना करना ), ३. मोसली ( वस्त्र को दीवाल आदि के सहारे से ऊपर, नीचे व तिरछे करके प्रतिलेखना करना ), ४. प्रस्फोटना ( वस्त्र को जोर से फटकारना ), ५. विक्षिप्ता ( प्रतिलेखनां किए हए और प्रतिलेखना बिना किए हुए वस्त्रों को मिला देना), ६. वेदिका ( जानु के ऊपर, नीचे, तिरछे एवं १. उड्ढे थिरं अतुरियं पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे।
तो बिइयं पप्फोडे तइयं च पुणो पमज्जिज्ज ।। अणच्चावियं अवलियं अणाणुबंधिममोसलि चेव । छप्पुरिमा नव खोडा पाणीपाणिविसोहणं ।।
-उ० २६.२४-२५. तथा देखिए-श्रमणसूत्र, पृ० ४०६-४१०. २. आरभडा सम्मदा वज्जेयव्वा य मोसली तइया ।
पप्फोडणा च उत्थी विक्खिता वेइया छट्ठी ।। पसिढिलपलंबलोला एगामोसा अणे गरूवधुणा। कुणइ पमाणे पमायं संकियगणणोवगं कुज्जा ।।
-उ० २६.२६-२७. पडिलेहण कुणं तो मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ।।
-उ० २६.२६.
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