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६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
५. जन्मसम्बन्धी शरीर की अवस्था-विशेष ( गति ) -जन्मसम्बन्धी शरीर की मुख्य चार अवस्थाएँ (पर्याएँ) हैं जिन्हें 'गति' नाम से कहा गया है। यद्यपि गति शब्द का सामान्य अर्थ गमन है परन्तु यहाँ देवादि चार अवस्था-विशेषों में जीव के गमन करने के कारण उन्हें गति कहा गया है। इस विषय में एक प्रकार का कर्म-विशेष स्वीकार किया गया है जिसके आधार पर इसकी व्याख्या की जाती है। इस गति भेद के आधार से जो चार भेद जीव के हैं उनके नाम ये हैं-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च (पशु-पक्षी, वृक्ष आदि) और नारक।
६. धर्माचरण-जो अहिंसा आदि धर्म का पालन करते हैं वे 'सनाथी-जीव' हैं तथा जो ऐसा नहीं करते हैं वे 'अनाथी-जीव' हैं। इस तरह दो भेद हैं। इसे अन्य प्रकार से तीन भागों में भी विभक्त किया गया है। जैसेः मनुष्य जन्म को मूलधन मानकर-१. मूलधन-रक्षक- ऐसे कार्य करने वाला जिससे मनुष्यजन्म की पुनः प्राप्ति हो, २. मूलधन-विनाशक-जो खोटे-कर्म द्वारा मूलधनरूपी मनुष्य जन्म को नष्ट करके पशु एवं नरकादि योनियों में जन्म लेता है और ३. मूलधनवर्धक-जो अच्छे कार्यों को करके देवपने को प्राप्त करता है। १. पंचिदिया उ जे जीवा चउव्विहा ते वियाहिया । नेरइया तिरिक्खा य मणया देवा य आहिया ।।
-७० ३६.१५५. २. इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा तामेगचित्तो निहुओ सुणेहि मे। नियण्ठधम्म लहियाण वी जहा सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥
-उ० २०.३८. तुझं सुल द्धं ख मणुस्सजम्मं लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी । तुब्भे सणाहा य सबन्धवा य जं मे ठिया मग्गि जिणत्तमाणं ।।।
-उ०२०५५. ३. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ।।
-उ० ७.१६. तथा देखिए-उ० ७.१४,२१.
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