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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २७७ ५. संसार-भ्रमणाभावरूप मुक्ति की प्राप्ति ।'
जो इस व्रत का ठीक से पालन नहीं करता है वह इन गुणों के विपरीत जिन दोषों को प्राप्त करता है वे इस प्रकार हैं :
१. आत्मप्रयोजन (आत्मज्ञान या सुख) की प्राप्ति न होना ।२ २. अस्थिरचित्त (अस्थिरात्मा) होना। ३. धर्माराधना में शंका आदि दोष उत्पन्न होना। ४. संयमविराधना, उन्माद, दीर्घकालिक रोगादि की प्राप्ति । ५. परलोकभय, कर्मसंचय, दुःख एवं नरक की प्राप्ति ।६ .
इस तरह ग्रन्थ में अन्य व्रतों की अपेक्षा ब्रह्मचर्य पर अधिक जोर दिया गया है। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि भगवान पार्श्वनाथ ने जिन चार व्रतों का पालन करने का उपदेश दिया था उनमें ब्रह्मचर्य व्रत नहीं था फिर क्या कारण था कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य पर इतना जोर दिया और उसे सब व्रतों में दुस्तर कहा । इस विषय में ग्रन्थ में वही तर्क दिया गया है जो साधु को सान्तरोत्तर वस्त्र के स्थान पर पुराने वस्त्र ( या अचेल ) पहिनने के विषय में दिया गया है। ७ इसका तात्पर्य यह है १. एस धम्मे धुवे निच्चे सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिझंति चाणेण सिज्झिस्संति तहा वरे ॥
-उ० १६. १७. तथा देखिए-उ० ३१. १४. २. इह कामाणियट्टस्स अत्तठे अवरज्झई ।
-उ० ७. २५ ३. जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो अट्टिअप्पा भविस्ससि ।।
-उ० २२. ४५. ४. आयरियाह-निग्गंथस्स खलु इत्थीपसुपंडगसं सताई सयणासणाई
सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा ल भेज्जा, उम्मायं वा पउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ वा भंसेज्जा......।
-उ० १६. १ ( गद्य ) । ५. वही। . ६. उ० ५. ५-११. ___७. देखिए-पृ० २५६, पा० टि० २; पृ० २५७, पा० टि० १.
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