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________________ २७६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन होकर जीव प्रायः हिंसा, झूठ, चोरी, धनादि-संग्रह आदि में प्रवृत्त होता हुआ चक्षु-दृष्ट रति को ही सत्य मानता है।' महत्त्व-ग्रन्थ में इसके महत्त्व को प्रकट करने के लिए ही सोलहवें अध्ययन को गद्य तथा पद्य में पूनरावत किया है। इस व्रत का पालन करने वाले को श्रमण एवं ब्राह्मण कहा गया है। साधु के लिए जिन बाईस प्रकार के परीषहों (कष्टों) पर विजय पाने का विधान किया गया है उनमें स्त्री-परीषह भी एक है जो कामजन्य पीड़ा पर विजय पाने के लिए है। इस व्रत के पालन करने से अन्य व्रत सुखोत्तर तो हो ही जाते हैं, इसके अतिरिक्त जिन गुणों की प्राप्ति होती है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : १. आत्मशुद्धि में प्रधान कारण होने से आत्म-प्रयोजन की प्राप्ति।' २. साधु-धर्म (श्रामण्य) की सफलता ।" ३. देवों के द्वारा भी पूज्य हो जाना। ४. संवर की आधारशिला होने से संयमबहुल, संवरबहुल, समाधिबहुल, मन-वचन-काय से गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी तथा अप्रमत्तता की प्राप्ति । १. न मे दिट्टे परे लोए चक्खुदिट्ठा इमा रई। -उ० ५.५. तथा देखिए-उ० ५.६-१०. २. देखिए-पृ० २६८, पा० टि० १. ३. देखिए-परीषहजय, प्रकरण ५. ४. इह कामणियट्टस्स अत्तठे नावरज्झई । -उ० ७.२६. ५. सुकडं तस्स सामण्णं । -उ० २.१६. ६. देवदाणवगंधव्वा जक्ख रक्खसकिन्नरा। बंभयारि नमसंति दुक्करं जे करंति तं ।। -उ० १६. १६. ७. देखिए-पृ० २६८, पा० टि० ४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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