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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२७५ कामभोगरूपी समुद्र को उसी प्रकार पार कर लेते हैं जिस प्रकार कोई कुशल वणिक समुद्र को पार कर लेता है।'
इस तरह जो इस व्रत के धारण करने में समर्थ हो जाता है वह अन्य व्रतों को सरलतापूर्वक धारण कर लेता है क्योंकि कामवासना पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन से उद्दीपित होती रहती है। अतः समाधिस्थानों की प्राप्ति के लिए पाँचों इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति का त्याग आवश्यक बतलाया गया है। इस तरह जब पाँचों इन्द्रियां वश में हो जाती हैं तो वह जितेन्द्रिय हो जाता है और तब जितेन्द्रिय के लिए कोई भी व्रत धारण करना कठिन नहीं रह जाता है। इसीलिए ग्रन्थ में बहुत्र पाँचों इन्द्रियों के विषयों से प्रलोभित न होकर जितेन्द्रिय, संयत और सुसमाहित होने का उपदेश दिया गया है ।२ रथनेमी जैसे संयमी के द्वारा प्रार्थित होने पर भी राजीमती का संयम में दढ़ रहना एवं उसे भी संयम में दढ़ करना ब्रह्मचर्य व्रत में दढ़ रहना है । इसके बाद ब्रह्मचर्य में दढ़ होकर दोनों अन्य व्रतों का भी सरलतापूर्वक पालन करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं । यद्यपि इस व्रत का भी उद्देश्य अहिंसा की भावना को दढ करना है तथापि जो इसे सबसे अधिक कठिन बतलाया गया है वह इसलिए कि कामसुख से प्रेरित
१. भोगामिसदोसविसन्ने हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे ।
बाले य मंदिए मूढे बज्झई मच्छिया व खेलम्मि ॥ दुप्परिच्चया इमे कामा नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह संति सुव्वया साहू जे तरंति अतरं वणिया व ॥
-उ० ८.५-६. नागो जहा पंकजलावसन्नो दठं थलं नाभिसमेइ तीरं। एवं वयं कामगुणे सु गिद्धा न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥ अच्चेइ कालो तरंति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयंति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥
-उ० १३.३०-३१. २. उ० १२.१.३,१७; १३.१२; १४.४७; १५.२-४,१५-१६; १६.१५;
१६.३०-५१ आदि । ३. देखिए-परिशिष्ट २.
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