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________________ २७४ ] रूप होने से उसे पृथक् न मानकर बतलाई गई हैं । ' उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ब्रह्मचर्य की करता - ब्रह्मचर्य को ग्रन्थ में अन्य सभी व्रतों की अपेक्षा अधिक दुष्कर बतलाया गया है । यह वह अमोघ कवच है जिसके धारण कर लेने पर अन्य सभी व्रत आसानी से धारण किए जा सकते हैं । अतः इसकी दुष्करता का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थ में लिखा है - 'संसारभीरु, धर्म में स्थित, मोक्षाभिलाषी मनुष्य के लिए इतना दुस्तर इस लोक में अन्य कुछ भी नहीं है जितना कि मूर्खों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ | जो इनको पार कर लेता है उसके लिए शेष पदार्थ सुखोत्तर हो जाते हैं । जैसे महासमुद्र के पार कर लेने पर गंगा जैसी विशाल नदियाँ आसानी से पार करने योग्य हो जाती हैं । यह दुस्तरता अधीर पुरुषों के लिए ही बतलाई गई है क्योंकि वे श्लेष्मा में फँसने वाली मक्षिका की तरह उनमें उलझ जाते हैं और तब जिस प्रकार कीचड़वाले तालाब में फँसा हुआ हाथी कीचड़ से रहित तीर प्रदेश को देखकर भी वहाँ से नहीं निकल पाता है उसी प्रकार कामादि में आसक्त वे लोग कामादि विषयों को नहीं छोड़ पाते हैं । इसके विपरीत ये विषय भोग स्वयं पुरुष को छोड़कर उसी प्रकार अन्यत्र चले जाते हैं जिस प्रकार फलों से रहित वृक्ष को छोड़कर पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं । परन्तु जो सुव्रती साधु हैं वे ही ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ १. वही, आ० टी०, पृ० १३६१. २. मोक्खाभिकंखिस्स उ माणवस्त संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ बालमणोहराओ ॥ एए य संगे समइक्कमित्ता सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा || - उ० ३२.१७-१८. तुलना कीजिए जहा नई वेयरणी दुत्तरा इह संमया । एवं लोगंसि नारीओ दुत्तरा अमईमया ॥ Jain Education International —सूत्रकृताङ्ग ३.३.१६. तथा देखिए - पृ० २६८, पा० टि०१; उ० १३.२७,२६; १६. १३-१४,१६; १६.२६, ३४ आदि । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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