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२७८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन कि महावीर के काल में लोगों की प्रवत्ति कामवासना की ओर बहत अधिक बढ़ रही थी और यहाँ तक कि पशुओं के साथ भी काम-संतुष्टि करने में प्रयत्नशील देखे जाते थे । इसीलिये ब्रह्मचर्य के लक्षण में एवं समाधिस्थानों के वर्णन में तिर्यञ्च शब्द को जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त इस समय के लोग वक्रजड़ स्वभाव के होने के कारण कुतर्क द्वारा यह सिद्ध करने लगे थे कि स्त्री-सेवन का त्याग आवश्यक नहीं है, जबकि अपरिग्रह व्रत के अन्दर ही स्त्री के एक प्रकार की सम्पत्ति होने के कारण स्त्री-संपर्कजन्य मैथुनसेवन का त्याग भी सन्निविष्ट था । मनुष्यों की इस प्रकार कामवासना की ओर बढ़ती हई प्रवत्ति को देखकर ही इसे अहिंसादि व्रतों से पृथक व्रत के रूप में स्वीकार किया गया तथा इस पर विशेष जोर भी दिया गया। कामवासनाएँ बढ़ जाने से लोग अहिंसादि व्रतों की ओर उन्मुख नहीं होते थे । अतः अहिंसा
और अपरिग्रह व्रत की सर्वाधिक प्रधानता रहने पर भी इनका पालन करने में कामवासनाएँ प्रमुख बाधक होने के कारण ब्रह्मचर्य को दुस्तर कहा गया और अन्य व्रतों को सुखोत्तर । इसी तरह रात्रिभोजन की ओर बढ़ती हुई प्रवृत्ति को देखकर रात्रिभोजन-त्याग को भी महावतों के ही साथ में कहा जाने लगा था। अपरिग्रह महाव्रत :
धन-धान्य, दासवर्ग आदि जितने भी निर्जीव एवं सजीव द्रव्य हैं उन सबका कृत-कारित-अनुमोदना एवं मन-वचन-काय से निर्मोही होकर त्याग करना अपरिग्रह (अकिञ्चन) महाव्रत है। अतः सर्वविरत साधु के लिये आवश्यक है कि वह क्षुधाशान्ति के लिये भी १. चउविहेऽवि आहारे राई भोयणवज्जणा । सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करं ।।।
-उ० १६.३१. धणधन्नपेसवग्गेस परिग्गहविवज्जणं । सव्वारंभपरिच्चागो निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥
-उ० १६.३०. तथा देखिए-उ० ८.४; १२.६; १४.४१, ४६; २१.२१; २५.२७२८%; ३५.३, १६ आदि ।
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