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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२७९ अन्नादि का लेशमात्र भी संचय न करे और न रात्रि के लिये कुछ बचाकर रखे। इसके अतिरिक्त हिरण्य आदि की मन से भी कामना न करे तथा हिरण्य और पत्थर में समदृष्टि रखता हुआ पक्षी की तरह आशारहित होकर अप्रमत्तभाव (सावधानीपूर्वक ) से विचरण करे ।' इस तरह सभी प्रकार के धन-धान्यादि का परित्याग करके तणमात्र का भी संग्रह न करना तथा पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ व अमनोज्ञ विषयों के उपस्थित होने पर भी जल से भिन्न कमल की तरह उनमें लिप्त ( राग-द्वेषयुक्त) न होना ही अपरिग्रह महाव्रत है । अपरिग्रही ही वीतरागी हैं क्योंकि जब तक विषयों से विराग नहीं होगा तब तक जीव अपरिग्रही नहीं हो सकता है । विषयों के प्रति रागबुद्धि (लोभबुद्धि) का होना ही परिग्रह है। ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है और लोभ के बढ़ने पर परिग्रह भी बढ़ता जाता है । जब शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन विषयों से सम्बन्धित सचित्त एवं अचित्त सभी द्रव्यों से विराग हो जाता है तो उसके लिए संसार में कुछ भी दुष्कर नहीं रह जाता है। यह निष्परिग्रहता या वीतरागता अतिविस्तृत एवं सुस्पष्ट राजमार्ग १. सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए । पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिवए ।
-उ० ६.१६. तथा देखिए-उ० ३५. १३. २. जहा पोमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहि तं वयं बूम माहणं ।
-उ० २५.२७. तथा देखिए-उ० १०.२८; ३२.२२, ३५. ३. जहा लाहा तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निट्ठियं ।
-उ० ८.१७. ४. इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचिवि दुक्करं ।
-उ० १६.४५. तथा देखिए-उ० २६.४५.
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