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________________ २८० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है।' इस अपरिग्रह व्रत के समक्ष अज्ञानमूलक जप-तपादि षोडशीकला को भी प्राप्त नहीं करते हैं । जो इन विषयों के प्रति ममत्व नहीं रखता है वह इस लोक में दुःखों से अलिप्त होकर आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है तथा परलोक में भी देव या मुक्ति पद को प्राप्त करता है। इस तरह इस व्रत को दढ़ रखने के लिये आवश्यक है कि पाँचों इन्द्रियों के तत्तत् विषयों में रागबुद्धि न की जाए क्योंकि किसी भी विषय के प्रति राग होने पर उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना पड़ता है और उस विषय की प्राप्ति के प्रयत्न में हिंसा, झूठ, चोरी आदि नाना प्रकार के पापों को करना पड़ता है। अतः अहिंसादि व्रतों का पालन करने के लिये भी आवश्यक है कि धन-धान्यादि से ममत्व न किया जाए। इस तरह इस अपरिग्रह व्रत के भी मूल में अहिंसा की भावना निहित है । रजोहरण आदि जो भी उपकरण साधु के पास रहते हैं उनसे उसे ममत्व नहीं होता है क्योंकि वे उपकरण · संयम की आराधना में सहायक होने से आवश्यक हैं । इसीलिए सर्वविरत साधु को उनकी प्राप्ति होने पर हर्ष एवं नष्ट होने पर खेद नहीं होता है । अतः साधु रजोहरण आदि उपकरणों से युक्त होने पर भी सर्वविरत कहलाता है । यदि साधु को रजोहरण आदि उपकरणों में भी ममत्व होता है तो वह सर्वविरत नहीं है क्योंकि वह पूर्ण अपरिग्रह व्रत का ठीक से पालन नहीं करता है। अपरिग्रह या वीतरागता की पूर्णता होने पर जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । अतः ग्रन्थ में कहा है कि वीतरागी साधु ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में प्रवत्त होकर आठों प्रकार के कर्मों के बन्धन ( ग्रन्थि ) को खोलने का प्रयत्न करता है। सर्वप्रथम वह मोहनीय कर्म को पृथक करके पूर्ण वीतरागता की १. अवसोहिय कंटगापहं ओइण्णेऽसि पहं महालयं । -उ० १०.३२. २. देखिए-पृ० २५३, पा० टि० १. ३. उ० ४.१२; ६.५; ७.२६-२७; ८.४; १४.४४; २६.३०,३६; ३२.१६, २६, ३९. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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