________________
प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
[ २८१
अवस्था को प्राप्त करता है । जब मोहनीय कर्म को पूर्णतः नष्ट करके पूर्ण वीतरागी हो जाता है तो फिर वह अन्तर्मुहूर्त के बाद ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का युगपत् क्षय करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वतः सुखी एवं सर्वशक्तिसम्पन्न हो जाता है । इस अवस्था में मनवचन - काय की प्रवृत्ति ( योग ) होते रहने से वह 'सयोगकेवली' कहलाता है । इसके बाद आयु ( आयुकर्म ) के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर वह मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के साथ ही साथ श्वासोच्छ्वासरूप क्रिया का भी निरोध करके अतिस्वल्प क्षण में ही अवशिष्ट चार अघातिया कर्मों का युगपत् क्षय कर देता है । इस तरह वह सब कर्मों का क्षय हो जाने पर सिद्ध, एवं मुक्त अवस्था को प्राप्त करके तथा सब प्रकार के दुःखों का हमेशा के लिए अन्त करके कृतकृत्य होता हुआ अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है ।" ग्रन्थ में ऐसे कई राजाओं एवं महापुरुषों के नाम गिनाए गए हैं जिन्होंने सम्पत्तिरूप विपुल साम्राज्य को छोड़कर ( सर्वविरत होकर ) मुक्ति को प्राप्त किया है ।
इस तरह अपरिग्रह से तात्पर्य यद्यपि पूर्ण वीतरागता से है परन्तु ब्रह्मचर्य व्रत को इससे पृथक् कर देने के कारण यह धन-धान्यादि अचेतन द्रव्य और दास आदि सचेतन द्रव्यों के त्यागरूप रह गया है । ग्रन्थ में इस अपरिग्रह व्रत से युक्त जीव को ब्राह्मण कहा गया है । 3
महाव्रतों के मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना :
अहिंसा आदि जिन पाँच नैतिक नियमों को महाव्रत शब्द से कहा गया है उन सबके मूल में अहिंसा की भावना निहित है तथा इस अहिंसा व्रत की पूर्णता बिना अपरिग्रह के संभव
१. उ० २६.७१-७३.
२. देखिए - परिशिष्ट २.
३. देखिए - पृ० २७६, पा० टि० २.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org