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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
साधन हैं फिर मैं अनाथ कैसे हो सकता हूँ ? हे भदन्त ! आप मिथ्या न कहें ।
मुनि - हे राजन् ! तू मेरे द्वारा प्रयुक्त 'अनाथ' और 'सनाथ' शब्द का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जानता है । अतः ध्यानपूर्वक मेरे पूर्ववृत्त को सुन - 'मैं दीक्षा लेने के पूर्व अपार धन-सम्पत्तिवाले अपने पिता के साथ कौशाम्बी नगरी में रहता था। एक बार मुझे असह्य चक्षुरोग हुआ । उस रोग को दूर करने के लिए अद्वितीय चिकित्साचार्यो, ने मेरी सब प्रकार से चिकित्सा की परन्तु वे मेरा रोग दूर न कर सके। पिता ने विपुल सम्पत्ति खर्च की परन्तु वे भी रोगजन्य मेरे कष्ट को दूर न कर सके । रोती हुई माता, बहिन, पत्नी आदि सम्बन्धीजन भी मुझे दुःख से मुक्त न कर सके । यही मेरी अनाथता
। इस तरह नाना प्रकार के प्रयत्न किए जाने पर भी जब मेरा चक्षुरोग ठीक न हुआ तो मैंने एक दिन संकल्प किया कि यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा तो साधु बन जाऊँगा । इस संकल्प के साथ मैं सो गया । जैसे-जैसे रात्रि बीतती गई, रोग शान्त होता गया और प्रातःकाल पूर्ण स्वस्थ हो गया । संकल्प के अनुसार मैंने भी माता-पिता से अनुमति लेकर प्रव्रज्या ले ली। तभी से मैं अपना व दूसरों का नाथ हो गया । यही मेरी सनाथता है । जो आत्मा को संयमित रखकर श्रमणधर्म का सम्यक् पालन करते हैं वे सनाथ हैं और जो श्रमण होकर भी विषयासक्त रहते हैं व धर्म विधिपूर्वक पालन नहीं करते हैं वे अनाथ हैं ।'
राजा (सनाथ और अनाथ विषयक इस अश्रुतपूर्व अर्थ को सुनकर प्रसन्न होता हुआ व हाथ जोड़कर ) - हे भगवन् ! आपने मुझे सनाथ और अनाथ शब्द का ठीक-ठीक अर्थ बतला दिया । आपका मनुष्य जन्म सफल है । आप सनाथ एवं सबान्धव हैं । इतना ही नहीं आप नाथों के भी नाथ हैं। मैं आपसे धर्म में अनुशा - सित होना चाहता हूँ | मैंने आपको भोगों के लिए निमन्त्रण देकर व प्रश्न पूछकर आपका जो अपराध किया है उसे क्षमा करें।
इसके बाद राजा अपने बन्धुजनों के व मुनि की वन्दना करके चला गया। अन्यत्र विहार कर गए ।
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साथ धर्म में दीक्षित होकर मुनि भी निर्मोही भाव से
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