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________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४५६ इस परिसंवाद में निम्नोक्त विषयों की चर्चा की गई है : १. विषयासक्त जीवों को ही प्रव्रज्या कठिन है, अन्य को नहीं। २. मगचर्या ( साध्वाचार ) की कठोरता व उसका फल । ३. संसार के दुःख व उनकी असारता। ४. सभी जीवों को नाना प्रकार के भोगों का सख-दुःखरूप अनुभव। श्रेणिक-अनाथी संवाद : मगध देश का राजा श्रेणिक प्रचर रत्नों से परिपूर्ण था। एक बार वह विविध प्रकार के फूलों व फलों से सुशोभित तथा नन्दन वन के समान रमणीक मण्डिकुक्ष नामक उद्यान में विहार-यात्रा के लिए गया। वहाँ घूमते हुए राजा ने एक ध्यानस्थ सौम्याकृतिवाले मुनि को देखा। उसमें रूप, लावण्य, सौम्यता, निर्लोभता और भोगों से अनासक्ति आदि अनेक दुर्लभ गुणों को एकत्र देखकर राजा आश्चर्यचकित हुआ। 'अनाथी' नाम से प्रसिद्ध उस मुनि के प्रति आकृष्ट हुए राजा ने मुनि के चरणों में नमस्कार किया। पश्चात् मुनि से न अधिक पास और न अधिक दूर बैठकर राजा ने हाथ जोड़कर कहा__ श्रेणिक राजा- हे आर्य ! विषय-भोग के योग्य इस युवावस्था में आपके प्रवजित होने का क्या कारण है ? अनाथी मुनि- महाराज ! मैं अनाथ हैं। मेरा कोई नाथ (स्वामी-रक्षक) नहीं है। कोई दयालु मित्र-बन्धु भी नहीं है। अतः प्रवजित हो गया हूँ। __ राजा (हंसकर)- तुम्हारे जैसे सौभाग्यशाली व्यक्ति का कोई 'नाथ नहीं है यह कैसे संभव है ? हे भदन्त ! मैं आज से तुम्हारा नाथ बनता हूँ । अब तुम यथेच्छ दुर्लभ भोगों को भोगो। मुनि-हे मगधाधिप ! तुम खुद अनाथ हो फिर अनाथ होकर मेरे व दूसरों के नाथ कैसे हो सकते हो ? । राजा ( मुनि के अश्रुतपूर्व वचनों को सुनकर अत्यधिक आश्चर्ययुक्त होता हुआ )-मेरे पास सभी प्रकार के उत्कृष्ट भोग१. उ० अध्ययन २०० For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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