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१३४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन रोग आदि के उपस्थित हो जाने पर कोई बचा नहीं सकता है।' यह शरीर जिसका हम प्रतिदिन नाना प्रकार से शृंगार करते हैं वह भी विष्ठा, मूत्र, नासिकामल आदि अनेक घृणित पदार्थों से भरा हुआ है। इस प्रकार के अपवित्र शरीर में मन, वचन एवं काया से आसक्त होकर जीव इसके रक्षण, पोषण एवं संवर्धन आदि की चिन्ता किया करते हैं। रोगादि के हो जाने पर इस शरीर के कारण ही जीवों को अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं। अतः मृगापुत्र तथा भृगुपुरोहित के दोनों पुत्र इस शरीर को आधि, व्याधि, जरा, मरण आदि से पूर्ण जानकर इसमें क्षणभर के लिए भी प्रसन्न नहीं होते हैं।
विषयभोग-जन्य सुखों में सुखाभासता : ___ संसार के विषयभोगों की साधनभूत पाँच इन्द्रियों को चोररूप बतलाया गया है।५ पाँचों इन्द्रियों को चोररूप इसलिए कहा
१. उ० २०.६-३०. २. चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं ।
-उ० १.४८. तथा देखिए-उ० २४.१५; १६.१५. ३. जे केइ सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो । मणसा कायवक्केणं सव्वे ते दुक्खसम्भवा ।।
-उ० ६.१२. ४. माणसत्ते असारम्मि वाही रोगाण आलए ।
जरामरणपत्थम्मि खणंपि न रमामहं ।। जम्मदुक्खं जरादुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जंतुणो।
-उ० १६.१५-१६. तथा देखिए-उ० ५.११; १४.७. ५. आवज्जई इंदियचोरवस्से ।
-उ० ३२.१०४. तथा देखिए-उ० ६.३०,
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